यूपी विधानसभा चुनाव की रिपोर्टिंग और नॉन-गोदी मीडिया की उम्मीद


अपने बनाए माहौल में फंसकर इन निजी यूट्यूब चैनलों, स्ट्रीम यार्ड से चलने वाले चर्चाकार पैनलों और इनके कर्ता धर्ताओं ने मन में एक उम्मीद पाल ली। सपा सरकार आने के बाद मिलने वाली राहतों की उम्मीद।


anti modi journalists

मेरे खयाल से यह पहला चुनाव था जब सांस्थानिक मीडिया के सरकारपरस्त नैरेटिव के खिलाफ संगठित रूप से फुटकर मीडिया ने सरकार विरोधी नैरेटिव का एकतरफा माहौल बनाया।

फुटकर मीडिया बोले तो लोकप्रिय यूट्यूब और फेसबुक चैनल व क्षेत्रीय चैनल। 2019 के लोकसभा चुनाव तक यह फुटकर मीडिया माहौल भांपने और रिपोर्ट करने के बुनियादी काम तक सीमित था।

लॉकडाउन के दौरान मजदूर पलायन, किसान आंदोलन और ऐसे ही सत्ता विरोधी आयोजनों ने फुटकर मीडिया को जाने अनजाने पार्टी बना दिया। इनके पत्रकार अनजाने में ‘एक्टिविस्ट’ पत्रकार बन गए और मंज़रकशी के बजाय माहौल बनाने को जनपक्षधर पत्रकारिता समझ बैठे।

इसका दूसरा आयाम थोड़ा अश्लील है, लेकिन कहा जाना चाहिए। मेरी निजी जानकारी यह है कि अपने बनाए माहौल में फंसकर इन निजी यूट्यूब चैनलों, स्ट्रीम यार्ड से चलने वाले चर्चाकार पैनलों और इनके कर्ता धर्ताओं ने मन में एक उम्मीद पाल ली। सपा सरकार आने के बाद मिलने वाली राहतों की उम्मीद।

इन राहतों में यश भारती पुरस्कार से लेकर आर्थिक मदद आदि शामिल है। इस आकांक्षा ने उन्हें समाजवादी से सपाई बना दिया। ठीक वैसे ही, जैसे बड़ी यादव आबादी ने ठेके-पट्टे की सहूलियतों की उम्मीद में चार कदम आगे बढ़कर सपा का प्रचार किया, evm बक्सों की निगरानी की और 1977 टाइप माहौल बनाया। इस प्रक्रिया में सपा का संगठन दृश्य नहीं था।

ये सारे सपा की आसन्न सरकार के संभावित लाभार्थी थे। लाभार्थी फैक्टर अगर कुछ है, तो यहां उसकी निशानदेही की जानी चाहिए। लाभ मिलने के बाद वोट देना एक बात है। लाभ लेने की उम्मीद में वोट देना अलग बात।

लाभ लेकर वोट देने वाला हो सकता है गिल्ट में शांत रहा हो। लाभ की उम्मीद में हल्ला मचाने वाला मुखर रहा। जो मुखर रहा, उसने सत्ता विरोधी माहौल को ब्लो किया, अतिरंजित किया। इसी अतिरंजना की रिपोर्टिंग ने इस विश्वास को और दृढ़ किया कि भाजपा जा रही है।

ऐसी पत्रकारिता गैर-जिम्मेदाराना कही जानी चाहिए। पत्रकार को प्रचारक नहीं बनना चाहिए- संघी, वामपंथी या सपाई बसपाई, कैसा भी प्रचारक। उसका नुकसान ये होता है कि जनादेश उल्टा पड़ने पर जनता आपको दौड़ाने को खोजती है।

इस तरह प्रतिपक्षी मीडिया की विश्वसनीयता को भी आप खा जाते हैं और उसके लपेटे में वे तमाम पत्रकार ब्रांड कर दिए जाते हैं जिन्होंने न एक पैसा कहीं से लिया है और न ही किसी लाभ के आकांक्षी हैं।

यूपी विधानसभा चुनाव की रिपोर्टिंग में पार्टीगत खेमेबाजी के ऊपर यश भारती फैक्टर के प्रभाव पर काम किया जाना चाहिए। आखिर पता तो चले नॉन-गोदी मीडिया में कौन कौन उम्मीद से था…!