क्या गरीबी एक सोच है और अमीरी संयोग?

संजय वर्मा
अतिथि विचार Published On :
poverty and richness

एक नए अमीर से मुलाकात हुई। यहां प्लॉट, वहां जमीन, यह व्यापार,वह इन्वेस्टमेंट बताने के साथ-साथ वह दोहराते रहे कि यहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की , संघर्ष किया! ऐसी कहानियां हमें प्रेरणा देती हैं कि एक आदमी यदि सफल है तो उसके पीछे उसकी मेहनत है।

पर ऐसा मानने में एक मुश्किल है। यदि यह सच है तो इसका उल्टा भी सच होना चाहिए। मतलब जो असफल है,गरीब है ,उसने मेहनत नहीं की? और अपनी बदहाली के लिए वह उसी तरह जिम्मेदार है जिस तरह सफल आदमी अपनी सफलता के लिए खुद को श्रेय देता है। यदि यह सच है तो क्या गरीबों से सहानुभूति रखने के बजाय उन्हें जलील किया जाना चाहिए?

पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त लेखिका बार्बरा किंग्सफ्लोर ने अपने एक लेख में पुअर-शेमिंग शब्द का इस्तेमाल किया है। जैसे किसी मोटे या बदसूरत व्यक्ति का मजाक उड़ाने को बॉडी शेमिंग कहते हैं उसी तरह एक आदमी की गरीबी के लिए उसे जिम्मेदार मानते हुए उसका मजाक उड़ाना। अमेरिकी पूंजीवादी व्यवस्था में यह शब्द चलन में है।

पर क्या सचमुच किसी की सफलता या असफलता के लिए सिर्फ वह व्यक्ति ही जिम्मेदार है? मेरे पिता इंजीनियर थे। वे मेरे कॉलेज की फीस भर सकते थे, इसलिए मैं इंजीनियर बना । मेरे साथ पढ़ने वाले दूसरे बच्चे शायद मुझसे बेहतर होकर भी पिछड़ गए क्योंकि उनके मां बाप गरीब थे। मनोवैज्ञानिक बताते हैं एक व्यक्ति जीवन में क्या कर पाएगा यह दो बातों पर निर्भर करता है। एक उसके जींस या पैदाइशी गुण अवगुण और दूसरा उसका वातावरण। इन दोनों ही बातों पर हमारा कोई एख्तियार नहीं है। यह बस संयोग है। अंग्रेजी में इसे ओवेरियन लॉटरी कहते हैं। मतलब आप एक खास घर में एक खास मां बाप की औलाद बनकर पैदा हुए यह एक संयोग था, इसमें आपने कुछ नहीं किया।

किसी व्यक्ति की सफलता में उसे मिले अवसरों का भी हाथ है। कल्पना कीजिए कि एक ही प्रतिभा के दो व्यक्ति हैं । एक इथोपिया में पैदा होता है और दूसरा अमेरिका में। जाहिर है उनकी जिंदगीयों में जमीन आसमान का फर्क होगा। अमेरिका उसकी प्रतिभा को आसमान देगा जबकि इथोपिया में पैदा हुआ व्यक्ति शायद जिंदा बचे रहने में ही खप जाए। किसी देश की राजनीति और उसकी अर्थव्यवस्था भी इंसान की सफलता के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। भारत में किसी खास जाति में पैदा होना यह तय करता है कि आपको आगे बढ़ने के कितने मौके मिलेंगे या कितनी रुकावटें आएंगी।

सफलता और संयोग के रिश्ते से इंकार नहीं किया जा सकता । पिछले कुछ सालों से हमारे देश में जमीनों की खरीद-फरोख्त इतना फायदेमंद रहा कि कई बगैर पढ़े लिखे लोगों ने बहुत कम मेहनत कर बहुत ज्यादा पैसा कमाया। प्रॉपर्टी की आंधी में तिनके भी हवा में उड़े। इनमें से अधिकांश लोग संयोग से इस व्यापार में आ गए थे । क्या हमें इनकी सफलता के लिए इन्हें श्रेय देना चाहिए ? क्या वे नए अमीर जो अपने संघर्ष की कहानी सुना रहे थे, ये बात मानेंगे?

जैसे पैसा पैसे को बनाता है उसी तरह गरीबी गरीबी को बढ़ाती है। नोबेल विजेता अभिजीत बैनर्जी ने गरीबी को समझने के लिए एक शब्द दिया ‘ पॉवर्टी ट्रैप ‘! उनका कहना है गरीब को कम मजदूरी मिलती है, इसलिए वह समुचित प्रोटीन नहीं खा पाता, प्रोटीन की कमी की वजह से उसका शरीर और कमजोर हो जाता है, कमजोर शरीर की वजह से वह ज्यादा काम नहीं कर पाता, इसलिए उसकी मजदूरी और भी कम हो जाती है। इस तरह वह एक दुष्चक्र में फंस जाता है। यदि इन गरीबों को लगातार किसी तरह प्रोटीन डाइट मिल सकती तो वे इस पावर्टी ट्रैप से निकल सकते थे।

मगर कुछ लोग मानते हैं की गरीबी एक संस्कार है। अभिजीत बनर्जी की टीम ने एक प्रयोग किया उन्होंने गरीबों को कुछ अतिरिक्त पैसा देना शुरू किया। उन्हें उम्मीद थी कि यह लोग इस पैसे का इस्तेमाल अपने लिए पौष्टिक भोजन खरीदने में करेंगे। लेकिन गरीबों ने इस पैसे से चटपटी और सेहत के लिए हानिकारक चीजें खरीदी। थोड़ा और अतिरिक्त पैसा मिलने पर बजाए पौष्टिक भोजन या सेहत पर खर्च करने के टीवी मोबाइल और शराब खरीदी।

अभिजीत कहते हैं लंबे समय की गरीबी में रहने के बाद इंसान भविष्य की उम्मीद खो देता है। वह बस आज में जीना चाहता है। उसके भीतर गहरे यह बात बैठ जाती है कि कभी कुछ ठीक नहीं हो सकता। बस अभी जो कुछ है उससे अधिक से अधिक मजा ले लो , वरना यह भी चला जाएगा। इसे आप नाउम्मीदी की इंतेहा भी कह सकते हैं और एक दुर्गुण भी। अंग्रेजी में इसे इंस्टेंट ग्रेटिफिकेशन कहा जाता है। एक तरह से देखा जाय तो इस दुर्गुण के लिए भी गरीब जिम्मेदार नहीं क्योंकि उसके पूर्वजों की गरीबी की सामूहिक स्मृतियां इसके लिए जिम्मेदार हैं।

किसी गरीब को उसकी गरीबी के लिए जिम्मेदार न मानने की अपनी मुश्किलें हैं। यदि गरीब खुद भी यह मानने लगे कि उसकी बदहाली के लिए बह खुद जिम्मेदार नहीं है, तो वह प्रयास करना ही बंद कर देगा, जबकि हम मानते हैं कि हम मनुष्यों में इच्छा शक्ति होती है, जिसे फ्री- विल कहते हैं। मगर यह हमें फिर एक दार्शनिक सवाल की सुरंग में ले जाकर छोड़ देता है कि क्या सचमुच कोई फ्री-विल है या फिर इंसान की इच्छा शक्ति या महत्वाकांक्षा भी अंततः उसके जन्मना गुणों (जींस) और उसके वातावरण पर ही निर्भर है जिस पर उसका कोई एख्तियार नहीं था?