बिगड़ रही नर्मदा की इकोलॉजी, बांध से रुक गया बहता पानी, खनन से खत्म हो रहीं वनस्पतियां और जीव


नर्मदा पर बन गए कई बांध, रुक गया बहता हुआ पानी, ताज़े पानी की नदी में अब नहीं मिल रहीं कई ख़ास मछलियां और वनस्पति



भारत में बहने वाली सबसे पुरानी नदियों में से एक नर्मदा नदी है। मध्य भारत क्षेत्र में बहने वाली यह विशाल नदी पहाड़ों और जंगलों से होकर निकलती है। नर्मदा की 41 सहायक नदियां और इसके अंदर तरह-तरह के जीव और वनस्पतियां हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर जीव अब खत्म हो रहे हैं। यह स्थिति नदी की बिगड़ती सेहत बताती है।

नदी के प्रवाह को रोकने के लिए जगह-जगह बनाए जा रहे बांध, किनारों से निकाली जा रही रेत और खत्म हो रहे जंगल से नर्मदा की इकोलॉजी खराब हो रही है। यही वजह है कि जानकार आने वाले कुछ दशकों में नर्मदा के खत्म हो जाने की आशंका जता रहे हैं।

जबलपुर के शोधार्थी डॉ. अर्जुन शुक्ला नर्मदा नदी पर किए गए अपने शोध कार्यों के लिए 100 से अधिक पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। हाल ही में उन्होंने नर्मदा पर किए अपने एक शोध के आधार पर बताया कि नदी में पाई जाने वाली 20 से अधिक प्रजाति की मछलियां, 100 से अधिक तरह के दूसरे जीव और करीब 50 तरह की वनस्पतियां विलुप्त हो चुकी हैं। यह स्थिति लगातार हो रहे खनन, नर्मदा के किनारे से खत्म हो रहे जंगल और उसके कारण बह रही मिट्टी के कारण हो रहा है।

वह कहते हैं, “अगर ऐसा ही रहा तो आने वाले कुछ समय में नर्मदा में रहने वाले दूसरे कई जीव खत्म होने की कगार पर आ जाएंगे।” अपने शोध के बारे में बताते हुए अर्जुन कहते हैं कि पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो रही है और नर्मदा की इकोलॉजी बिगड़ रही है। यही कारण है कि इस तरह की स्थिति देखनी पड़ रही है।

अर्जुन बताते हैं कि नर्मदा पर उन्होंने अपना शोध कोरोना खत्म होने के बाद किया और उसे जबलपुर संभाग क्षेत्र में ही केंद्रित रखा। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रदेश में नर्मदा नदी सबसे ज्यादा उसी इलाके में बहती है, जहां उसकी लंबाई करीब 60 किमी है।

 

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बड़वानी जिले में नर्मदा नदी का किनारा।

दूसरे हिस्सों में नर्मदा की स्थिति

जबलपुर से 700 किमी दूर बड़वानी जिले में भी नर्मदा की स्थिति कोई बहुत अलग नहीं है। यहां से करीब 200 किमी दूर सरदार सरोवर बांध बना हुआ है। स्थानीय समाजिक कार्यकर्ता रहमत बताते हैं कि यह पानी ठहरा हुआ है। यहां नदी के पानी में जलकुंभी भी दिखाई देती है।

उनके अनुसार, जलकुंभी रुके हुए पानी में ही होती है और इसका सीधा सा मतलब है कि पानी में काफी प्रदूषण है। वह कहते हैं कि नर्मदा में जलकुंभी अब कई इलाकों में दिखाई देती है, जिसमें नरसिंहपुर, होशंगाबाद, धार आदि जिले शामिल हैं।

नर्मदा नदी के पानी की सेहत लगातार गिर रही है। इसकी पुष्टी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट में भी हुई है। यहां से जारी बीते करीब पांच वर्षों के आंकडों का अध्ययन बताता है कि कई जगह नर्मदा का पानी ए कैटेगरी से डी कैटेगरी तक गया है, यानी अच्छे से बेहद खराब तक। यह आंकड़े प्रदेश में स्थित 50 स्टेशनों से मिली रिपोर्ट से जुटाए गए हैं।

नर्मदा नदी को मध्यप्रदेश सरकार ने साल 2017 में जीवंत नदी का दर्जा दिया है, यानी इस नदी को एक जीवित इकाई माना गया है और इसके संरक्षण की जवाबदेही सरकार की है। इसके तहत आईपीसी की धारा 377 के तहत नदी को प्रदूषित करने पर 500 रुपये जुर्माने का प्रावधान है।

राजघाट बड़वानी में मछुआरा जितेंद्र।

नर्मदा से गायब हो रहीं ‘टाइगर ऑफ वॉटर’

नर्मदा में पाई जाने वाली महाशीर मछली जिसे ‘टाइगर ऑफ वॉटर’ कहा जाता है; उसको वर्ष 2011 में स्टेट फिश यानी राज्य की मछली का दर्जा मिला। यह मछली तब नर्मदा में 20 फीसद तक थी, जबकि अब यह नदी में न के बराबर है। इस समय नर्मदा नदी में एक फीसद से भी कम महाशीर मछली मिल रही हैं। ताजा पानी की मीठे स्वाद वाली यह मछली नर्मदा जैसे तेज प्रवाह वाली नदी में विपरीत धारा में भी तेजी से तैर सकती है, लेकिन यह नर्मदा में बन रही विपरीत इकोलॉजी का सामना नहीं कर पा रही।

जानकार कहते हैं कि नदी का पानी रुक रहा है, जिसके कारण उसमें ऑक्सीजन की मात्रा कम हुई है और जीवों के रहने के लिए स्थितियां कठिन हुई हैं। इसे साधारण भाषा में समझाते हुए बड़वानी जिले के बीजासन गांव के 32 वर्षीय मछुआरे जितेंद्र कहते हैं कि उन्होंने 11 महीने पहले आखिरी बार महाशीर मछली पकड़ी थी और उसके पहले वर्ष 2019 के दिसंबर में महाशीर मिली थी। दोनों ही बार उसका वजन तीन पाव के करीब था।

जितेंद्र बताते हैं कि उनके इलाके में बहता पानी नहीं है, जिसके कारण बड़वानी में कॉमन कार्प, रोई, खट्ट्या जैसी मछलियां कम हो गई हैं। वहीं, तीन उंगली के बराबर होने वाली गुरुगुच जैसी छोटी मछली जो 200 ग्राम तक वजन की होती है, वह भी करीब विलुप्त हो गई है।

मछुआरे के मुताबिक, महाशीर और कॉमन कॉर्प की मांग सबसे अधिक होती थी, क्योंकि यह सबसे मीठे स्वाद वाली होती हैं। लेकिन अब उनकी मांग आना बंद हो गया है, क्योंकि मछली मिलती ही नहीं।

 

नरसिंहपुर में नर्मदा नदी पर बन रहा चिनकी बैराज

क्या कहते हैं नर्मदा के जानकार

नर्मदा बचाओ आंदोलन की संयोजक मेधा पाटकर विश्व बांध आयोग की आयुक्त रहीं हैं, वह कहती हैं कि नर्मदा की पूरी सेहत बिगड़ी हुई है। नदी पर बांध बनाए गए, लेकिन उनकी पर्यावरणीय और सामाजिक असर की समीक्षा नहीं की गई। नर्मदा का पानी लगातार बिगड़ रहा है। नदी से रेत इस तरह निकाली गई कि अब तल में मिट्टी और गंदगी ही बह रही है। ऐसे में जलीय जीव नहीं रह पा रहे हैं, जबकि यही जीव पानी साफ करते हैं। लिहाजा, नदी का पानी साफ नहीं है।

पाटकर के अनुसार, “नदी में बड़े पैमाने पर जीव खत्म हुए हैं, लेकिन उनका कोई बहुत ठोस अध्ययन नहीं हुआ है। इसका असर तकरीबन सभी इलाकों में मछुआरों के कामकाज पर भी पड़ा है।”

स्टेट बायोडायवर्सिटी बोर्ड के तहत महाशीर मछली को बचाने के प्रोजेक्ट पर काम कर रहीं भोपाल की सेज यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर और एक्वाकल्चर विभाग की प्रमुख डॉ. श्रीपर्णा सक्सेना कहती हैं, “40 साल पहले तक नर्मदा में पकड़ी जाने वाली हर 100 मछली में से 28 महाशीर होती थी, जबकि अब स्थिति यह है कि नदी में महाशीर खत्म होने की कगार पर है। छह महीने एक साल में किसी मछुआरे को यह मछली मिल जाती है।”

वह आगे कहती हैं कि यह मछली नर्मदा में रहने वाले सबसे उन्नत जीवों में से एक है, इसीलिए इसे ‘टाइगर ऑफ फ्रेश वाटर’ कहते हैं। जैसे; जंगल से टाईगर खत्म होने पर जंगल का पारिस्थितिक तंत्र बिगड़ जाता है, वैसा ही महाशीर के खत्म होने पर नदी में बहाव और साफ पानी के साथ होता है।

“नर्मदा में महाशीर की खुराक जैसे; वनस्पति और छोटे जीव भी नहीं रह गए हैं। यह नदी की इकोलॉजी प्रभावित होने का सबसे स्पष्ट उदाहरण है।”

अपने प्रोजेक्ट के लिए डॉ. सक्सेना नदी की तरह ही एक जल संरचना में महाशीर मछलियों का स्वस्थ प्रजनन करवाने में सफल रही हैं। इसकी वजह से अब उनके पास कुछ हजार महाशीर मछलियां हैं, लेकिन उनकी चिंता यह है कि नर्मदा में यह मछलियां कैसे पैदा होंगी। उनके मुताबिक, समय के साथ यह स्थिति और भी बिगड़ती जाएगी।

नर्मदा नदी पर काम कर चुके साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डेम्स रिवर्स एंड पीपल के कोआर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर कहते हैं कि एक नदी का डिफाइनिंग कैरेक्टरस्टिक होता है बहना, जबकि नर्मदा नदी एक बड़े हिस्से में अच्छी तरह से बह नहीं रही है। नर्मदा का पानी ज्यादातर रिजर्वायर में कैद है, वहीं साल के कुछ समय डाउन स्ट्रीम में पानी ही नहीं होता।

उनके अनुसार, “नदी अकेली नहीं बहती है, बल्कि उसके साथ वनस्पति, रेत आदि कई तरह की चीजें बहती हैं। नर्मदा नदी की सबसे बड़ी परेशानी रेत के लिए होने वाला खनन है। मध्य प्रदेश में इस नदी को रेत के लिए लगातार खोदा जा रहा है। जबकि, नदी में से रेत निकाले जाने की कोई मॉनिटरिंग नहीं हो रही है।”

 

 

बड़वानी जिले में नर्मदा के पानी में बहाव कम है और यहां नदी में इस तरह की जलकुंभी और गंदगी है। (फाइल फोटो)

रेत खनन और शहरी कचरा

नर्मदा की सफाई करने वाली कई संस्थाएं अलग-अलग जिलों में काम कर रही हैं। उन्हीं में से एक सदस्य गीता मीणा हैं, जो नर्मदापुरम में रहती हैं लेकिन नर्मदा के हर एक क्षेत्र में सक्रिय हैं। उनके साथ हर जिले की ऐसी हजारों महिलाएं जुड़ी हुई हैं जो अपने क्षेत्र में नर्मदा की सफाई करती हैं। गीता बताती हैं कि इस समय नर्मदा में गंदगी को तो साफ किया जा सकता है, लेकिन उससे भी बड़ी परेशानी रेत खनन की है।

उनके अनुसार, “नर्मदापुरम से लेकर बड़वानी तक सैकड़ों जगह रेत खनन हो रहा है।” गीता की नजर में खनन ही सबसे बड़ी परेशानी है, जिसके कारण नदी के किनारे टूट गए हैं। वह कहती हैं कि ऐसा भी संभव है कि आने वाले कुछ दशकों में नर्मदा का अस्तित्व खतरे में पड़ जाए।

नर्मदा नदी में बड़े पैमाने पर शहरी कचरा भी समा रहा है। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, नर्मदा में रोजाना 160 मिलीयन लीटर सीवरेज का और अन्य गंदा पानी आ रहा है। इसमें काफी बड़ी मात्रा जबलपुर, होशंगाबाद जैसे शहरों से आती है। मध्यप्रदेश में नर्मदा नदी के 50 घाट हैं, लेकिन उनमें से करीब 29 बांधों का पानी पीने के लायक नहीं है।

 

नरसिंहपुर जिले में नर्मदा नदी का पानी।

बेहिसाब बांध निर्माण और वनों की कटाई

नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े रहे राजकुमार सिन्हा कहते हैं कि नर्मदा घाटी विकास परियोजना के तहत नर्मदा नदी पर 30 बांध बनाए जाने हैं, जिसमें से करीब 10 बांध बन चुके हैं। वहीं, 150 मध्यम आकार के और करीब 3000 छोटे आकार के बांध बनाए जाने हैं।

वह कहते हैं कि इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि नदी का प्रवाह किस कदर रुक रहा है और नदी में ताजा पानी कहां से आएगा। राजकुमार आगे कहते हैं कि सभी बांध बनने के बाद आगे क्या स्थिति होगी, इसे समझना भी मुश्किल नहीं है।

नर्मदा नदी पर चार बड़े बांध इंदिरा सागर, बरगी, ओंकारेश्वर और सरदार सरोवर बनने से करीब 60 हजार हैक्टेयर जंगल डूब गया है। नर्मदा नदी वनों और पहाड़ों की ही नदी है और जब वन नहीं होंगे तो नदी की क्या स्थिति होगी।

नरसिंहपुर जिले में भी नर्मदा के पानी के धीमे बहाव को साफ देखा जा सकता है। यहां मई के महीने में ही नदी के कई किनारों पर काई और जलकुंभी जमा होती नजर आई। यहां के स्थानीय पत्रकार ब्रजेश शर्मा बताते हैं कि नर्मदा का बहाव अब पहले से कम हो चुका है और किनारे पर ऐसे कई गांव हैं जहां अब पीने के पानी का संकट तक देखा गया है।

उनके अनुसार, “पहले नदी से काफी दूर तक भी भूजल की प्रचुर मात्रा होती थी, लेकिन अब तो अक्सर यहां पानी की समस्या की खबरें आती रहती हैं।”

नदी के किनारे बसे गांव पिपरहा, ग्वारी, रातीकरार खुर्द, समनापुर, झलौन, झामर, चिनकी उमरिया, गोकला, जमुनिया आदि गांव में पीने के पानी की समस्या है। स्थानीय लोग बताते हैं कि वे नर्मदा के पानी पर ही निर्भर हैं, क्योंकि अब भूमिगत जल मिलना भी मुश्किल हो रहा है।

ग्राम पिपरिया के मुलायम कहते हैं कि “बीते कुछ वर्षों में नर्मदा के किनारों पर भी पानी की समस्या बढ़ गई है।”

ब्रजेश शर्मा बताते हैं कि इन इलाकों में नर्मदा के किनारे मौजूद जंगलों में काफी कमी आई है, हालांकि यह स्थिति पूरे मध्य प्रदेश की ही कही जा सकती है।

नर्मदा नदी के आसपास वनों की कटाई भी इसकी सेहत को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचा रही है। वन स्थिति रिपोर्ट 1991 बताती है कि मध्यप्रदेश के नर्मदा बेसिन के जिलों में 52,283 वर्ग किलोमीटर के इलाके में जंगल थे, जबकि 30 साल बाद वर्ष 2019 की रिपोर्ट में यह जंगल केवल 48,188 वर्ग किलोमीटर रह गया। इस बीच नर्मदा बेसिन से 4095 वर्ग किलोमीटर यानी 4 लाख 9 हजार 500 हेक्टेयर जंगल क्षेत्र कम हो गया है।

 

पर्यावरणविद और भूजल वैज्ञानिक की राय

भोपाल में रहने वाले देश के जाने-माने पर्यावरणविद वैज्ञानिक डॉ. सुभाष पांडे कहते हैं कि नर्मदा की स्थिति बेहद खराब है, वह भी इतनी कि आने वाले 50 वर्षो में यह नदी खत्म हो जाएगी। उनके मुताबिक, नर्मदा के किनारों पर खनन, उसकी धारा रोकने वाले बांध इस कदर नुकसानदेह हैं कि संभव है बारहमासी बहने वाली यह नदी सूख जाए।

वह आगे कहते हैं कि इस बात का खूब प्रचार किया जाता कि नर्मदा का पानी पीने योग्य है, लेकिन यह पूरी तरह गलत तथ्य है। सुभाष पांडे इस दावे का प्रचार करने वाले एक समाचार संस्थान को न्यायिक नोटिस भी दे चुके हैं। वह बताते हैं कि नर्मदा का पानी अब कुछेक स्थानों पर ही ‘ए’ कैटेगरी का रह गया है, जबकि अन्य सभी स्थानों पर यह ‘सी’ और ‘डी’ कैटेगरी का है। लेकिन, इस बात को समझना होगा कि ‘ए’ कैटेगरी का पानी भी बिना साफ किए पीने लायक नहीं होता। इससे निचले कैटेगरी के पानी की शुद्धता का अंदाजा लगाया जा सकता है।

सुभाष पांडे बताते हैं, “वर्ष 2022 में बड़वानी के राजघाट क्षेत्र के पानी की जांच एक प्रतिष्ठित लैब से करवाई गई थी और परिणाम में साफ बताया गया था कि पानी पीने लायक नहीं है।”

नर्मदा की सेहत के विषय पर भूजल वैज्ञानिक सुधीन्द्र मोहन शर्मा कहते हैं कि यह सही है कि नर्मदा में खनन हो रहा है और गंदगी बहाई जा रही है, लेकिन वह नहीं मानते कि इसकी उम्र केवल 50 साल ही है। वह कहते हैं कि नर्मदा एक विशाल नदी है जो अपने आपको संभाल सकती है, लेकिन साथ ही यह भी मानते हैं कि इसकी सहायक नदियों को पहले बचाना होगा ताकि नर्मदा नदी में पानी बना रहे।

 

खरगोन जिले के महेश्वर में नर्मदा नदी की स्थिति अच्छी है, यहां सबसे गहरा पानी बताया जाता है।

नर्मदा को लेकर लापरवाही पर क्या कहते हैं अधिकारी

नर्मदा की बिगड़ रही सेहत के बारे में हमने पर्यावरण विभाग के प्रमुख सचिव गुलशन बामरा से बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने जवाब नहीं दिया।

जबकि, मेंबर सेक्रेट्री चंद्रमोहन ठाकुर ने बताया कि प्रदेश का प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक से ककराना (अलीराजपुर) अंतरराज्यीय सीमा तक राज्य की सीमा में 52 स्थानों पर नदी के पानी की निगरानी कर रहा है। राज्य में नर्मदा नदी के पानी की गुणवत्ता ‘ए’ कैटेगरी है और जैव-निगरानी अध्ययन के अनुसार, नदी का पारिस्थितिकी तंत्र स्वस्थ है।

नर्मदा में हो रहे खनन के मामले में चंद्रमोहन ठाकुर कहते हैं कि नर्मदा नदी में केवल मैनुअल खनन की अनुमति है। वह बताते हैं कि आगामी निविदा में नर्मदापुरम जिले में 77 रेत खदानें प्रस्तावित हैं, लेकिन वर्तमान में कोई भी रेत खदान चालू नहीं है।

उनके मुताबिक, खनिज विभाग द्वारा अप्रैल 2022 से मार्च 2023 के दौरान नर्मदापुरम, सीहोर, हरदा और देवास जिले में अवैध खनन के 50 मामले और अवैध परिवहन के 500 मामले दर्ज किए गए हैं।

वहीं, मुख्य वैज्ञानिक अधिकारी एवं प्रभारी अधिकारी, राज्य पर्यावरण प्रभाव निर्धारण प्राधिकरण रह चुके डॉ संजीव सचदेव कहते हैं कि खनिज और पर्यावरण दो अलग-अलग दिशा में काम करते हैं। नर्मदा पर काम किया जा रहा है, लेकिन रेत खनन में कई अवैध लोगों के आने से स्थिति बिगड़ जाती है क्योंकि वे लोग सही तरीके से खनन नहीं करते।

 

यह स्टोरी मूल रुप से मोजो स्टोरी  के लिए लिखी गई है। इसे आदित्य सिंह ने लिखा है। 

 



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