देश की सबसे पुरानी भोजन सभ्यता को बचाने के लिए संघर्ष


सुभद्रा अपने घर को बना रहीं हैं आदिवासी जीवन और भोजन संस्कृति का संग्रहालय, जनजातीय महिलाओं ने पहली बार मनाया मदर्स डे ताकि संस्कृति नई पीढ़ी तक पहुंच सके।



इंदौर। कोरोना संक्रमण के दौर से गुज़रने के बाद लोग अपने स्वास्थ्य को लेकर खासे सचेत हो चुके हैं। एक भयानक अनुभव के बाद इंसान ने सीखा है कि ख़ाना-खुराक़ और आबोहवा सभी कुछ जरुरी है और इससे भी ज्यादा जरुरी है संतुलन, नए और पुराने का। ऐसी सूरत में इस नए के दौर पुराने की मांग बढ़ी है लेकिन पुराने को बचाना इतना आसान नहीं है क्योंकि हमने उसे लगभग खो दिया है।

यहां बात हो रही है एक भोजन संस्कृति की जिसे हम भूल चुके हैं। मिलेट्स यानी मोटा अनाज इसी भोजन संस्कृति का हिस्सा है जिसे इन दिनों ख़ासी पूछ परक हासिल हो रही है। भारत सरकार मोटे अनाज को बचाने और इसे हमारी आधुनिक संस्कृति का हिस्सा बनाने के लिए काफी कुछ कर रही है। सरकार के ही अनुरोध पर संयुक्त राष्ट्र ने इस साल को मिलेट्स ईयर घोषित किया है।

मालवा निमाड़ का इलाका मध्यप्रदेश के कुछ सबसे उपजाऊ इलाकों में शामिल है लेकिन यहां भी मोटे अनाज की खेती करने वाले लोग खोजने पर भी बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। यही वजह है कि मिलेट्स को रोजाना की थाली में शामिल करना लोगों को उनकी आर्थिक स्थिति पर भारी पड़ सकता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि मिलेट्स उगाया नहीं जा रहा लेकिन यह सही है कि इसका उत्पादन मौजूदा कृषि संस्कृति के मुकाबले एक प्रतिशत से भी कम है।

मिलेट्स का उत्पादन करने वाले ज्यादातर लोग आदिवासी संस्कृति से हैं लेकिन आधुनिकता के दौर में वे भी अपनी भोजन सभ्यता के अहम बीज भूल चुके है ऐसे में इसे बचाना एक बेहद कठिन चुनौती है। इसी चुनौती का सामना कर रहीं हैं सामाजिक कार्य़कर्ता सुभद्र खापरडे। सुभद्रा देवास जिले के एक छोटे से गांव में रहकर यह संघर्ष कर रहीं हैं। उनका यह संघर्ष अनूठा और कठिन है क्योंकि वे आदिवासी समाज की उस संस्कृति को बचाने की कोशिश कर रहीं हैं जिसे समाज के नई पीढ़ी खुद ही भूल चुकी है या नहीं जानती।

 

सुभद्रा खुद दलित समुदाय से आती हैं और दशकों तक आदिवासी इलाकों में समाजसेवा करती रहीं हैं। वे मानती हैं कि इस भोजन सभ्यता को आदिवासी समाज के नौजवानों तक पहले पहुंचाना होगा इसके बाद ही यह समाज के अन्य वर्गों तक जा पाएगी। आदिवासी संस्कृति और समुदाय के प्रति उनका सर्मपण इतना गहरा है कि उन्होंने देवास जिले के बेहद सूखे गांव पांडुतालाब में अपने खेत में बने अपने घर को जनजातीय भोजन सभ्यता और पांरपरिक श्रम गहन जीवन जीने की तकनीक को दिखाने और समझाने वाला एक संग्रहालय बनाने जा रहीं हैं। इस संग्रहालय में आदिवासी समुदाय की भूमिका खास होगी क्योंकि यही लोग अपनी संस्कृति को बचाने के लिए यहां काम करेंगे।

इसी कोशिश में सुभद्रा ने इन्हीं आदिवासियों के साथ पहली बार इंटरनेशनल मदर्स डे अपने गांव के घर में मनाया है। रविवार को इस कार्यक्रम में आसपास के पांच-छह गांवों की पुरानी और नई उम्र की आदिवासी महिलाओं बुलाया गया। सुभद्रा कहती हैं कि आदिवासी भोजन संस्कृति में महिलाओं की भूमिका अहम रही है वे बताती हैं कि पुराने जमाने में आदिवासी पुरुष बाहर खाने की तलाश में परिवार से दूर जाते थे तो महिलाएं बच्चों के संभालते हुए आसपास की जमीन से बीज भी एकत्रित करती थीं यही बीज बाद में उनकी भोजन संस्कृति का हिस्सा बने। ऐसे में पुराने बीजों को बचाने के लिए महिलाओं को ही पहली जिम्मेदारी देनी होगी।

सुभद्रा के साथ ग्रामीण आदिवासी महिला बिछी बाई

रविवार को उनके घर पर जुटी आदिवासी महिलाएं पहली बार मदर्स डे मना रहीं थीं। आदिवासी समाज की उम्रदराज़ महिलाएं अपने साथ कई किस्म के बीज लेकर यहां पहुंची थीं। इसके अलावा घर में काम आने वाले कई दूसरे सामान भी वे लाईं थीं जो कि पूरी तरह प्राकृतिक थे। यहां पांडुतालाब में ही रहने वालीं सत्तर वर्षीय महिला बिच्छी बाई भी कुछ खास लेकर पहुंचीं थीं। जिसे उल्की कहा जाता है। बिच्छी बाई बताती हैं कि बीते सालों में आदिवासी परिवारों के पास ज्यादा धन नहीं होता था तो मटके में से पानी पीने के लिए बर्तन खरीदना भी कठिन होता था लेकिन आदिवासी घरों में ऐसे बर्तनों की जरुरत भी नहीं होती थी क्योंकि वे उल्की का उपयोग करते थे। उल्की जिसे कड़वी लौकी कहते हैं। इसे सुखाकर इसमें छेद करके इसे एक बर्तन की तरह उपयोग किया जाता था। जो कई दिनों तक चलती रहती थी। बिच्छी बाई बताती हैं कि इस तरह कड़वी लौकी का एक पेड़ सालों तक परिवारों को एक बर्तन की व्यवस्था कर देता था।

tribes food habits
कड़वी लौकी जिससे उल्की बनाई जाती है।

मदर्स डे में आई महिलाओं में कारोती बाई, बायजा बाई, नावादी बाईस समाएड़ी बाई भी आईं थीं। ये सभी महिलाएं अपने साथ पुराने बीज लेकर आईं थीं। इनमें से नवादी बाई बताती हैं कि वे अपने घर के पास हर बार कुदरा के बीज लगाती हैं और वे वर्षों से यह कर रहीं हैं और इसी तरह वे अपने इन पुराने बीजों को बचाए हुए हैं। वे बतातीं है कि इसके बदले में वे सुभद्रा से कुछ नए बीज लेकर जाएंगी और उन्हें लगाएंगी।

मदर्स डे का आयोजन

इस कार्यक्रम में सामाजिक कार्यकर्ता और राष्ट्रीय एकता परिषद की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्रद्धा कश्यप भी पहुंची हैं। वे धार जिले में आदिवासी इलाकों में करीब तीन दशकों से काम कर रहीं हैं। आदिवासी परंपरा में एक शानदार जीवन पद्धति है वे कहती हैं कि महिलाओं ने बीजों को बचाया और आज भी बचा रहीं हैं लेकिन उन्हें कभी किसान नहीं माना गया। ऐसे में जनजातीय समाज की महिलाओं के लिए यह किसान की पहचान देने की एक कोशिश है। कश्यप कहती हैं कि अगर आदिवासी समाज इस आधुनिकता में रहते हुए भी अपनी परंपराओं की ओर लौटते हैं तो वे बाजार आधारित परंपराओं से बच जाएंगी और आपस में बीजों का आदान-प्रदान कर अपने घर का खर्च चला सकती हैं। वे कहती हैं कि स्वाबलंबी जीवन के लिए एक यही टिकाऊ व्यवस्था है।

सुभद्रा के घर में पुराने बीज

पांडुतालाब गांव में सुभद्रा अपने घर को एक आदिवासी म्यूज़ियम बनाने की तैयारी कर रहीं हैं उनके घर में हर दिन कुछ नया काम हो रहा है। भवन की बनावट इस इलाके के किसी पांरपरिक घर की तरह ही है। आयोजन से एक दिन पहले इस घर में करीब तीस से अधिक तरह के बीज और फसलें संजो कर रखे गए हैं।

वे कहती हैं कि मालवा निमाड़ के उपजाऊ इलाके में सारी फसलें अच्छी हो रहीं हैं लेकिन यहां मोटा अनाज खत्म हो रहा है। ऐसे में उन्होंने सोचा कि मिलेट्स को बचाना सबसे ज्यादा जरुरी है क्योंकि यह हमारी कृषि सभ्यता का सबसे शुरुआती अनाज है जो खोजने पर भी नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में मिलेट्स को बचाना सबसे ज्यादा जरुरी है।

सुभद्रा ने इन अनाज के दानों को बचाने के लिए सैकड़ों किमी का सफर तय किया है। सुदूर आदिवासी गांवों में उनका यह सफल काफी कठिन रहा। वे कहतीं हैं कि अब उनके पास मालवा-निमाड़ में पाए जाने वाले मोटे अनाज के तकरीबन सभी बीज हैं। इनमें भादी, बटकी, कुदरा, सांगरी, राला, रागी, कुटकी, कोदो जैसे पुराने अनाज के बीज अब उनके पास सुरक्षित हैं और ये अब कई आदिवासी परिवारों के खेतों में फसलों का हिस्सा हैं। इसके अलावा उनके पास मप्र के कई हिस्सों में होने वाले मोटे अनाज के बीज हैं जिन्हें उन्होंने उन इलाकों में जाकर एकत्रित किया है। वे कहती हैं कि पुरानी दालें जिन्हें देशी दालें भी कहते हैं उनके पास हैं। इसके साथ ही इसी तरह की प्याज़ और मूंगफली के बीजों को भी उन्होंने बचाया है।

food museum

मोटे अनाज को बचाने के लिए काम कर रहे लोगों में सुभद्रा अब एक जाना पहचाना नाम हैं। देश भर में होने वाले कृषि कार्यक्रमों में अक्सर वे अपने बड़े-बड़े बैग के साथ पहुंचती हैं जिनमें मोटे अनाज के दर्जनों किस्म के बीज होते हैं। मिलेट्स या मोटे अनाज को चाहने वाले देश भर के लोग आज उनके पास आकर ये बीज ले जाते हैं। वे बताती हैं कि नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष राजीव कुमार भी उनसे बीज ले चुके हैं और देश के कई कृषि अनुसंधान केंद्र इन बीजों को विकसित कर रहे हैं। ऐसे में वे उम्मीद जताती हैं कि आने वाले दिनों में देश भर के अलग-अलग क्षेत्रों में होना वाला मोटा अनाज सुरक्षित रहेगा।

वे कहती हैं कि उन्होंने छिंदवाड़ा के विलुप्त हो रहे भारिया आदिवासियों के बीज भी संरक्षित किए हैं। ऐसे ही एक भुट्टे को दिखाते हुए वे कहतीं हैं कि यह सूंघादार बाजरा है जिसमें काफी रुएं होते हैं। इस बाजरे ने अपने आप को इस तरह से विकसित किया है ताकि खुद को चिड़ियों से बचा सके। इस तरह आदिवासी परिवार की फसल भी अपनी रक्षा खुद करती थी।

वे सन यानी जूट की फसल दिखाते हुए कहतीं हैं कि इससे रस्सी बनती है और घर में इसी से बनाई गई रस्सी उपयोग की है। वे बताती हैं कि यह सन आदिवासी पंरपरा की फसल है। इसके अलावा मोटली ज्वार और चिकनी ज्वार भी है जिसका दाना एक दम सफेद होता है। वे कहती हैं कि चिकनी ज्वार को गेहूं की जगह ले सकता है और वे यह बीज अलीराजपुर जिले से लाईं हैं। सुभद्रा ने चिकनी ज्वार के बीज कई कृषि विज्ञान केंद्रों को दिए हैं और वहां इसे गेहूं के विकल्प के रुप में विकसित किया जा रहा है।

सुभद्रा खापरड़े के घर पर महिला दिवस का कार्यक्रम

दिलचस्प बात यह है कि सुभद्रा ने जिन आदिवासी परिवारों से यह बीज लिए थे अब वे भी सुभद्रा के पास ही आकर बीज लेकर जाते हैं। ऐसे में सुभद्रा का यह छोटा सा घर मोटे और पुराने अनाज का बीज बैंक बन चुका है। उनके पास ज्वार और मक्का की कई किस्में हैं। इस बीज बैंक में जितना भी अनाज उन्होंने आदिवासी परिवारों से एकत्रित किया है उन सभी का नाम पता और फोन नंबर भी उनके पास है। इसी बीज बैंक से इस इलाके में होने वाले मोटे अनाज का हिसाब रखा जाता है।

मदर्स डे के मौके पर सुभद्रा के पास आने वाले आदिवासी उनसे पांच रुपये से लेकर सौ रुपये तक में बीज ले जाते हैं, यहां महिलाओं को परोसा गया सारा भोजन पुरुषों ने मोटे अनाज से ही बनाया है। यहां मोटे अनाज की पुरानी रेसिपी भी महिलाओं ने आपस में साझा कीं।

आदिवासी इलाकों में रहने वाली कई महिलाएं सुभद्रा के साथ अपनी इस भोजन संस्कृति को बचाने में जुटी हुई हैं। इनमें से ज्यादातर की उम्र पचास और सत्तर वर्ष के बीच है। ये महिलाएं कहती हैं कि घर के पुरुष मोटे अनाज को समझते हैं लेकिन उन्हें नहीं लगता कि वे इस संस्कृति को अगली पीढ़ी तक सुरक्षित तरीके से बढ़ा पाएंगे ऐसे में उनकी जिम्मेदारी यहां काफी बढ़ चुकी है। ये महिलाएं परिवार की नई लड़कियों और लड़कों को मिलेट्स और मोटे अनाज के बारे में बताती हैं।

सुभद्रा ने मदर्स डे पर गांव के कई ल़ड़कों को भी बुलाया है हालांकि उन्हें महिलाओं के कार्यक्रम में शामिल होने की मनाही है लेकिन सुभद्रा चाहती हैं कि वे अपने पूर्वजों के अनाज और उनके रहन सहन के तरीके को समझें। अनाज के अलावा इस भावी म्यूजियम में कई तरह के भोजन उगाने और पकाने में काम आने वाले पारंपरिक उपकरण, बर्तन आदि भी रखे गए हैं। सुभद्रा म्यूजियम के लिए यह सामान भी कई गांवों से ला रहीं हैं। वे कहती हैं कि उनका यह संग्रहालय किसी तरह से आधुनिक नहीं होगा बल्कि पांरपरिक होगा और सही मायनों में एक पुरानी सभ्यता को बताएगा।

इन सभी प्रयासों के बाद भी सुभद्रा कहती हैं कि मिलेट्स या मोटे अनाज को लेकर समाज में इतनी जल्दी कुछ होने वाला नहीं है क्योंकि यह एक कठिन प्रक्रिया है। इसे समझाते हुए वे कहती हैं कि शुरुआत में देश में अनाज की कमी थी और कृषि क्रांति से इसे पूरा किया गया। इस प्रक्रिया में नए बीज नई फसलें आईं और पुराने बीज खो गए। इस तरह से इन्हें खोने में करीब सत्तर साल तक लग गए हैं और अब इन्हें पाने में हमें फिर समय लगेगा और शायद यह पचास साल तक हो जाए। सुभद्रा बताती हैं कि मोटे अनाज का उत्पादन कम होता है ऐसे में अनाज की जरुरत पूरी नहीं होती। ऐसे में किसान मिलेट्स को उपजाने से कतराते हैं।

 

वे आगे बताती हैं कि इसके अलावा बाज़ार भी एक बड़ा कारण हैं। इस दौरान वे अपने घर में भादी यानी एक तरह के पुराने चावल तैयार कर रहीं हैं। इसे अंग्रेजी में फॉक्सटेल मिलेट्स कहते हैं। वे इसे एक पारंपरिक यंत्र से कूटती हैं इस काम में एक सहयोगी की जरुरत होती है। वे कहती हैं कि यह प्रक्रिया लंबी और मेहनत भरी है। वहीं आजकल मिलेट्स को मशीनों से तैयार किया जाता है जो कि ठीक नहीं है। वे कहती हैं कि उनका यह मिलेट्स करीब चार सौ रुपये किलोग्राम है यह बहुत महंगा है जिसे आम लोग नहीं खा सकते। ऐसे में मिलेट्स केवल एक वर्ग विशेष का रह जाता है। सुभद्रा कहती हैं कि यहां इसे मिलेट्स उपजाने वालों के लिए लाभप्रद बनाने की जरुरत है ताकि इसे आगे बढ़ाया जा सके।

मदर्स डे का कार्यक्रम अब इस जनजातीय रहन-सहन और भोजन वाले म्यूजियम में हर साल मनाया जाएगा। हर बार यहां आने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ती जाएगी। इस बार पांच गांवों की महिलाओं को बुलाया गया है लेकिन अगले बार करीब बीस गांव की महिलाएं यहां जुटेंगी। इसके अलावा आसपास के जिलों से सामाजिक कार्यकर्ता भी पहुंचेंगे ताकि भोजन सभ्यता को बचाए रखने के लिए आदिवासी समुदाय के द्वारा प्रसार का यह तरीका अन्य जिलों में भी फैलाया जा सके। सुभद्रा फिलहाल बेहद सीमित संसाधनों में काम कर रहीं हैं वे कहतीं हैं एक सभ्यता को बचाने के लिए यह न्यूनतम संघर्ष है जो मिलेट्स चाहने वाले हर इंसान को किसी न किसी रुप में करना ही होगा।

साभारः आदित्य सिंह द्वारा यह खबर मूल रूप से मोजो स्टोरी के लिए लिखी गई थी। हम यह साभार देशगांव पर प्रकाशित कर रहे हैं। मूल ख़बर को आप यहां भी पढ़ सकते हैं।



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