REVIEW: राजनीतिक रूप से सजग, लेकिन तगड़ी कहानी कहने में असफल रही ‘तांडव’

शुभम उपाध्याय शुभम उपाध्याय
OTT दर्शन Updated On :
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रेटिंग : दो स्टार

अमेज़न प्राइम वीडियो की वेब सीरीज ‘तांडव’ में तकरीबन 30 से 40 मिनट अवधि के नौ एपीसोड हैं। इसका निर्देशन ओवर द टॉप मसाला फिल्में बनाने वाले अली अब्बास जफर ने किया है और इसको लिखा है ‘आर्टिकल 15’ जैसी संजीदा और कमाल फिल्म के लेखक गौरव सोलंकी ने। इस पॉलिटिकल ड्रामा में हमारे वक्त की राजनीति की छाप आसानी से नजर आती है, तो कई विवादास्पद मुद्दों पर भी ये सीरीज बेबाकी से अपनी बात रखती है।

सीरीज के लेखक गौरव सोलंकी ने दिल्ली में रहते हुए कुछ साल पत्रकारिता को भी दिए थे। इस वजह से लुटियन की दिल्ली में होने वाली राष्ट्रीय राजनीति और जेएनयू जैसे संस्थानों में होने वाली छात्र राजनीति, दोनों को उन्होंने करीब से देखा-परखा हुआ है।

उनकी इसी राजनीतिक चेतना की वजह से ‘तांडव’ में आपको पुलिस ब्रूटैलिटी से लेकर ओछी राजनीति के दांव-पेंच तक देखने को मिलते हैं। साथ ही वे दलित राजनीति से लेकर, छात्र राजनीति में पाए जाने वाले आदर्शवाद, और उस आदर्शवाद से इतर कठोर सतह वाले यथार्थ पर भी बात करते हैं।

दलित राजनीति की बात करते वक्त वे अपर कास्ट की उस मानसिकता को संवादों में ढालते हैं जो कि दलितों को नीची नजर से देखती है।

गौरव सोलंकी की लिखी ‘तांडव’, जेएनयू यानी कि जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी की तर्ज पर वीएनयू की बात करती है, यानी कि विवेकानंद नेशनल यूनिवर्सिटी।

जवाहर लाल नेहरू की जगह ये जो स्वामी विवेकानंद का नाम और स्टैचू सीरीज अपनी कहानी में शामिल करती है, ये भी एक तरह का प्रतिकार है उस मौजूदा राजनीति के प्रति जो कि स्वामी विवेकानंद की बातों को अपने फायदे के लिए गलत तरीकों से इस्तेमाल कर रही है।

‘तांडव’ में इस तरह की कई छोटी-बड़ी बातें हैं जो दिल्ली की छात्र राजनीति की समझ रखने वालों को पसंद आएंगीं, क्योंकि मैनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा में दिल्ली की ये दुनिया कम ही जगह बना पाती है।

लेकिन, ‘तांडव’ के साथ दिक्कत यह है कि लेखक गौरव सोलंकी की ये राजनीतिक चेतना एक बेहतर लिखी पटकथा का रूप नहीं ले पाती है। सीरीज की अगर सबसे बड़ी कमी की बात करें तो वो इसकी लिखाई ही है और उसी की वजह से सीरीज कई बार भरमरा के नीचे गिर पड़ती है।

एक तो इसमें कई सारे किरदार हैं और कईयों का कैरेक्टर आर्क ऐसा आधा-अधूरा है कि आपका उनसे कोई खास जुड़ाव नहीं बन पाता है। स्टॉक कैरेक्टर्स से ज्यादा ऐसे किरदार कुछ नहीं बन पाते, भले ही वो एक दलित मंत्री हो या फिर हिंदुस्तान की पहली महिला पायलट।

दूसरी कमी है कि जिस छात्र आंदोलन की टेक लेकर यह सीरीज सैफ अली खान वाली अपनी मुख्य कहानी को आगे बढ़ाना चाहती है, उस छात्र आंदोलन से जुड़ा प्लॉट भी कुछ वक्त बाद मुख्य कहानी के लिए अप्रासंगिक हो जाता है। लेकिन सीरीज तब भी उसे आखिर तक ड्रैग किए रहती है।

सीरीज का ट्रेलर भी इतना खराब काटा गया है कि जो बात 3 मिनट का ट्रेलर हमें शुरुआत में बता चुका है – कि स्टूडेंट लीडर बने जीशान अय्यूब चाणक्य बने सैफ अली खान का उनकी पार्टी की तरफ से चुनाव लड़ने वाला प्रपोजल ठुकरा देते हैं – वहां तक पहुंचने में सीरीज को 7 एपीसोड लग जाते हैं, और इस दौरान सैफ अली खान तमाम षडयंत्र कर जीशान अय्यूब को अपनी तरफ करने में लगातार लगे रहते हैं।

सीरीज में सैफ अली खान खुद को चाणक्य मानते हैं और जीशान अय्यूब को वो अपना चंद्रगुप्त, जो कि उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी दिलाएगा. लेकिन ट्रेलर हमें दिखा ही चुका था कि सैफ का चंद्रगुप्त बनने से इंकार कर जीशान अय्यूब अपनी खुद की पार्टी खड़ी करते हैं। तो फिर आखिर सीरीज ने इतना लंबा बिल्ड-अप लिया किस लिए? और फिर इतना लंबा बिल्ड-अप लेने के बावजूद जब सैफ अली खान वाली कहानी में छात्र राजनीति का कोई खास महत्व नहीं निकलता है, तो उस वक्त इस सीरीज की बचकानी राइटिंग पर बेहद कोफ्त होती है।

इस तरह के कई सारे लूपहोल्स सीरीज में हैं, जिन्हें स्पॉइलर्स के डर से यहां बताया नहीं जा सकता। लेकिन ये बात तय है कि वे सभी बेहद बचकाने और फिल्मी हैं और लेखक गौरव सोलंकी की सेंसिबिलिटी के नहीं लगते, बल्कि सलमान खान की बिना अक्ल वाली मसाला फिल्मों के लगते हैं। वो फिल्में जिन्हें बनाने में ‘तांडव’ के निर्देशक अली अब्बास जफर सिद्धहस्थ हैं।

फिर जेएनयू की छात्र राजनीति पर जो नजरिया गौरव सोलंकी पेश करते हैं, वो शुरुआत में तो ठीक लगता है, प्रमाणिक लगता है, लेकिन आगे चलकर कल्पना की ऐसी दुनिया में चला जाता है जिससे जेएनयू की पॉलिटिक्स समझने वाले लोग कम ही इत्तेफाक रखेंगे।

उदाहरण के लिए आखिर कोई आदर्शवादी स्टूडेंट लीडर क्यों एक फेक वीडियो बनाकर अपनी लड़ाई लड़ेगा जबकि पूरी सीरीज में वो सच और न्याय की बात हर सांस के साथ कहता चलता है? इसमें कोई शक नहीं, कि दिल्ली की अपनी राजनीतिक समझ को जो पलायनवादी मसाला फिल्मों वाला पैरहन लेखक ने इस सीरीज में पहनाया है, उसने ‘तांडव’ के कंटेंट की धार काफी कम कर दी है।

इन सब कमियों के अलावा सीरीज का अंत भी काफी निराशाजनक है। ये भी कि सीरीज कहीं से भी ‘हाउस ऑफ कार्ड्स’ का देसी वर्जन नहीं बन पाती है जबकि उसके पास सैफ जैसा क्रूर मुख्य किरदार मौजूद रहता है। ये भी कि आखिरी एपीसोड्स में आने वाले एक सस्पेंस को छोड़कर इसके लगभग सभी ट्विस्ट एंड टर्न्स बेहद फिल्मी और बिना किसी सिर-पैर के हैं।

अलीअब्बास जफर का निर्देशन भी औसत है, कैमरावर्क जरूर अच्छा है, और बैकग्राउंड स्कोर तनाव और रहस्य को बखूबी बयां करता है। लेकिन यही बैकग्राउंड स्कोर इतनी बार दृश्यों में बजता है, और इतनी बार साधारण से दृश्यों में भी बजता है, कि उसका इम्पेक्ट कम हो ही जाता है।

अभिनय के मामले में कई एक्टर बढ़िया काम करते हैं तो कई केवल जगह भरने के काम आते हैं। छोटे-से रोल में तिग्मांशु धूलिया घाघ राजनेता को मुखर अभिव्यक्ति देते हैं।

कुमुद मिश्रा अपनी चालाकी मिली हंसी के सहारे बुजुर्ग पार्टी नेता का रोल उम्दा अंदाज में अभिनीत करते हैं। अनूप सोनी और डिनो मारियो भी अपनी-अपनी भूमिकाओं में ठीक लगते हैं, तो वहीं कई दूसरे अदाकारों की तरह संध्या मृदुल को भी पूरी तरह जाया किया जाता है।

गौहर खान प्रभावित करती हैं, तो कृतिका कामरा अच्छा-खासा स्क्रीन स्पेस होने के बावजूद अपनी लिमिटिड एक्टिंग रेंज की वजह से कोई खास प्रभाव नहीं छोड़तीं। डिंपल कपाडिया बेहद सधा हुआ परिपक्व अभिनय करती हैं और कई दृश्यों में सैफ तक को टक्कर दे जाती हैं।

मोहम्मद जीशान अय्यूब कहीं से भी एक यूनिवर्सिटी स्टूडेंट की उम्र के नहीं लगते लेकिन अपनी ईमानदार परफॉर्मेंस की वजह से किरदार में यकीन पैदा कर देते हैं।

सुनील ग्रोवर सीरीज में सबसे अलग नजर आने वाला अभिनय करते हैं, और महिलाओं का रूप धरने और उनकी आवाजें निकालने के लिए प्रसिद्ध रहा ये अभिनेता, गुरपाल चौहान के अपने क्रूर और ठंडे किरदार में जान फूंक देता है।

इस सीरीज में ऐसा कोई सीन नहीं है जिसमें सुनील ग्रोवर स्क्रीन पर हों और बतौर दर्शक आपकी उत्सुकता चरम न छूती हो। उन्हें शर्तिया इस तरह के गंभीर और अलग किरदार आगे और भी मिलने चाहिए।

बाकी इन सब के अलावा सैफ अली खान अपने चाणक्य रूपी मुख्य किरदार में एकदम रचे-बसे रहते हैं। उन्हें यहां सटल व परिपक्व अभिनय करते हुए देखना बेहद अच्छा लगता है।

ये तो सीरीज का दोष है कि इसके लेखक-निर्देशक ऐसे सशक्त किरदार को बीच-बीच में छोड़कर दूसरे सब-प्लॉट्स की तरफ भागने लगते हैं जिस वजह से सैफ के किरदार का प्रभाव दर्शकों पर कम होने लगता है। नहीं तो जिस तरह का निर्दयी ये किरदार था, और जिस नफासत से सैफ ने इसे प्ले किया है, अगर ‘हाउस ऑफ कार्ड्स’ जैसी कोई देसी स्क्रिप्ट उन्हें मिली होती, तो सैफ अली खान हमें हिंदुस्तानी फ्रैंक अंडरवुड जैसा यादगार किरदार देकर जा सकते थे (‘हाउस ऑफ कार्ड्स’ का मशहूर क्रूर नायक-खलनायक)।