नकदी फसलों के मुकाबले कितने फायदे की है ज्वार-बाजरा-रागी-कोदो-कुटकी की खेती?

डॉ. संतोष पाटीदार डॉ. संतोष पाटीदार
इन्दौर Updated On :
millets or cash crop

इंदौर। हरित क्रांति के बाद भोजन में घर कर गए गेहूं, चावल, मक्का ने मिलेट्स को हिंदुस्तानी थाली से बाहर कर दिया। 1980 के दशक से खेती किसानी और भोजन की थाली से विलुप्त होते मिलेट्स या मोटे अनाज और देशी बीजो को बचाने के काम देश में कहीं-कहीं होते रहे हैं।

भारत सरकार ने बहुत संभव है किसानों के आंदोलनों के सिरदर्द और खेती किसानी को जलवायु परिवर्तन से बचाने की देश-विदेश के वैज्ञानिकों तथा पर्यावरणविदों की सलाह पर मिलेट्स को लेकर वैश्विक नवाचार का कदम उठाया हो।

जो भी हो यह एक समझदारी भरा फैसला है। इसके चलते गरीबों या आदिवासियों का भोजन मिलेट्स अब 365 दिनों का अंतरराष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष हो गया है। इसके साथ ही भारत की लीडरशिप में जी-20 देशों के एजेंडे में भी मिलेट्स और ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं।

अमेरिका का खेती-बाड़ी वाला विभाग और भारतीय मिलेट्स अनुसंधान केन्द्र हैदराबाद जो पहले मक्का अनुसंधान केन्द्र था तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद मिलेट्स के अत्यंत महत्वपूर्ण गुणों की महत्ता, उपयोगिता और उत्पादन की संभावनाओं की जमीन खंगालने में लगे हैं ताकि आने वाली पीढ़ियों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।

इन सारे प्रयासों के बाद भी सवाल है कि मिलेट्स को क्या देश के किसान और उपभोक्ता अपनाना चाहेंगे? इसका स्पष्ट उत्तर नहीं है। इसकी ठोस वजह हैं।

देश में अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई के कारण देश का स्वाद बदलना, सीमित होती कृषि जैव विविधता, विभिन्न कृषि जलवायु वाले इलाके यानी अलग-अलग गुणों वाली हवा, पानी, मिट्टी के साथ उन्नत किस्मों का नितान्त अभाव, सीड प्रोडक्शन और खेती की तकनीक बहुत कम होने से मिलेट्स अनप्रोडक्टिव यानी उत्पादकता और आर्थिक रूप से फायदे का सौदा नहीं रहा है।

सरकारों की ओर से इन पर न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं है। हालांकि अकेले छत्तीसगढ़ सरकार ने सबसे पहले मिलेट्स पर एमएसपी देना शुरू किया है।

शेष राज्यो से ऐसी उम्मीद नहीं करना बेकार है। इन परिस्थितियों में क्या किसान मिलेट्स की खेती को बड़े पैमाने पर अपनाएंगे? संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इस वर्ष को अंतरराष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष घोषित करने और जी-20 देशों के बीच मिलेट्स का विषय महत्वपूर्ण होने से ऐसी अनेक जिज्ञासाएं किसानों से लेकर खेती किसानी की समझ रखने वालो में हैं।

विषय की महत्ता को समझने के लिहाज से इस बारे में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त और मध्यप्रदेश के साथ सेंट्रल इंडिया में गेहूं उत्पादन क्रांति लाने और रस्ट जेसे महारोग से गेहूं को देशभर में बचाने वाली अनेक किस्में विकसित करने वाले विशेषज्ञ डॉ. एचएन पांडेय से बातचीत की गई।

डॉ. पांडेय ने देश के हर क्षेत्र में श्री अन्न, अनाज, फल, दूध आदि का उत्पादन, विपणन, जैविक खेती, पर्यावरण, गौ पालन आदि के कार्यों को जमीनी स्तर पर कई इलाकों में साकार किया। उनकी नीतिगत कृषि रिपोर्ट्स को सरकार ने हमेशा स्वीकारा और लागू भी किया।

यही कारण है कि मप्र गेहूं उत्पादन में सिरमौर है। डॉ. पांडेय की टीम के परिश्रम का नतीजा है कि मप्र को बार-बार कृषि कर्मण्य अवॉर्ड मिलते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान केंद्र इंदौर के क्षेत्रीय प्रमुख रहे डॉ. पांडेय बेबाक तरीके से गूढ़ गंभीर बात करने के लिए जाने जाते हैं।

मिलेट्स के जी-20 एजेंडा और देश में इसके उत्पादन के बारे में जब उनसे बात की गई तो उन्होंने बताया कि मिलेट्स या श्री अन्न तकरीबन सात हजार वर्ष पुराना भोजन रहा है।

मिलेट्स जैसे ज्वार-बाजरा आदि के दाने बहुत छोटे आकार के होते हैं। इसके उलट अनाज मसलन गेहूं-चावल-मक्का आदि के दाने बड़े आकार के होते हैं। दोनो में यह मूलभूत अंतर है।

मिलेट्स को फिर से मुख्य धारा में लाने की सरकार की नीति सैद्धांतिक रूप से बहुत अच्छी और महत्वपूर्ण है, लेकिन जमीन पर इसे उतारना टेढ़ी खीर है।

सन 1970 के दशक से देश के भोजन में मिलेट्स की जगह गेहूं, धान और मक्का हावी होते चले गए और मिलेट्स ओझल होते गए। ऐसा क्यों हुआ?

इसके जवाब में डॉ. पांडेय ने बताया कि हरित क्रांति से गेहूं-चावल की अत्यधिक उपज देने वाली किस्मों की सहज उपलब्धता होने लगी। ज्यादा उपज से ज्यादा पैसा मिलने लगा।

इन फसलों की पैदावार फायदेमंद रही। इंडस्ट्री में भी इसकी मांग बढ़ी। ऐसी स्थिति में मिलेट्स की खेती कम होती गई। इस तरह फूड हैबिट, फूड सिस्टम और फूड चैन से मिलेट्स बाहर हो गए।

हमारे देश में चावल सबसे ज्यादा खाया जाता है। दूसरे क्रम पर गेहूं भोजन का हिस्सा है। वैश्विक स्तर पर मक्का की सबसे ज्यादा खपत है। इन तीन मुख्य अनाज के अलावा मिलेट्स के रूप में ज्वार, बाजरा, रागी, कोदो-कुटकी, समा आदि हैं।

दिनोदिन जैव विविधता नष्ट होने से देशी बीज सीमित रह गए हैं। इसका सीधा असर मिलेट्स की नई किस्मों के विकास पर होगा। खाद्य सुरक्षा में मिलेट्स का योगदान न्यूनतम होगा। गेहूं-चावल-मक्का खाद्य सुरक्षा के लिहाज से भी महत्वपूर्ण हैं।

असल में सारे अनाज व अन्न घास की ही प्रजातियां हैं। इन सबका भौगोलिक वितरण अलग-अलग हैं। ज्वार-बाजरा देश के अधिकतर इलाकों में पैदा होता है।

ब्लैक कॉटन सॉइल (काली मिट्टी) वाले महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना में ज्वार की खेती ज्यादा है। कोदो-कुटकी, फिंगर मिलेट या रागी छत्तीसगढ़, राजस्थान, कर्नाटक के रेड सॉइल एरिया और नॉर्थ हिल्स में होती है।

ये मिलेट्स शुष्क-अर्धशुष्क इलाकों की फसलें हैं। इनकी खेती के अनुकूल इलाके कम होने के कारण पैदावार बहुत सीमित होती गई। इतनी कम कि इनसे देश का पेट नहीं भर सकते।

एक समय था जब मिलेट्स देश का भोजन हुआ करता था। फिर ऐसा क्यों हुआ? इसके जवाब में डॉ. पांडेय कहते हैं कि हरित क्रांति के बाद गेहूं-चावल की खेती को बढ़ावा दिया गया।

सरलता से मिलने वाली उन्नत किस्में, भरपूर बीज उत्पादन, खूब सारी नई तकनीक आदि से गेहूं-चावल की खेती फायदे की हो गई। अब इससे फायदे के साथ नुकसान भी बढ़ते जा रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन से धान की पैदावार प्रभावित हो रही है जो चिंता का विषय है तो क्या देश को अब अपने भोजन का स्वाद बदलना चाहिए? यानी मिलेट्स देश की प्लेट या थाली में फिर से जगह बना लेगा यानी क्या इसकी मांग बढ़ेगी?

इसके जवाब में डॉ.पांडेय कहते हैं कि आज के हालात में यह संभव नहीं है। कौन किसान नकदी फसल मसलन गेहूं, गन्ना, कपास, सोयाबीन आदि जिनसे अधिक नगद पैसा मिलता है उसे छोड़कर काम उपज की मिलेट्स की खेती अपनाएगा।

गेहू-चावल-मक्का के अनाज से जो सामाजिक बदलाव आया उसे आसानी से नहीं बदल सकते। मिलेट्स आदिवासियों और गरीबों का भोजन रहा है, लेकिन अब ग्रामीण इलाकों में भी गेहूं-चावल का उपयोग बढ़ा है।

मिलेट्स के अनगिनत फायदे हैं इसलिए शहरों में इसे हेल्थी फ़ूड के रूप में कुछ हद तक खाया जा सकता है। तो क्या मिलेट्स की खूबियों से आगे जाकर मांग बढ़ने से पैदावार बढ़ेगी ओर किसानों का फायदा भी बढ़ेगा?

इसका जवाब मिलता है कि इसके लिए मिलेट्स की भरपूर पैदावार की अनेकानेक उन्नत किस्मों को विकसित करना होगा। उन्नत बीजों के लिए वृहद स्तर पर सीड प्रोडक्शन का काम खड़ा करना पड़ेगा। इसके साथ ही मिलेट्स खेती के लिए नई तकनीकें विकसित करना होगी।

इस सबके लिए गहन अनुसंधान और वैज्ञानिकों को कठिन परिश्रम करना होगा। यह सरकार की प्राथमिकता में लाना होगा। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है मिलेट्स के प्रति लगाव के साथ सामाजिक बदलाव होना यानी समाज में मिलेट्स की खेती और खपत हर तरह से फायदेमंद बने ताकि परंपरागत अनाज की जगह मिलेट्स ले सकें, लेकिन यह दूर की कौड़ी है। बावजूद इसके जी-20 के माध्यम से मिलेट्स क्रांति का बीजारोपण होगा। ऐसी उम्मीद की जा सकती है।



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