विकल्प भी अगर हिंदुत्व है तो फिर भाजपा ही क्या बुरी है ?


भाजपा सब जगह एक जैसी दिखती है। भाजपा की चुनावी रणनीति और उसकी विचारधारा अलग-अलग नहीं नज़र आती।


श्रवण गर्ग
अतिथि विचार Updated On :

कर्नाटक फ़तह के बाद विंध्य पार करते ही कांग्रेस इस नतीजे पर पहुँच गई कि नफ़रत का कोई बाज़ार अब कहीं मौजूद नहीं है, मोहब्बत की दुकानें ही चारों तरफ़ खुली हुई हैं। साथ ही यह भी कि भाजपा से मुक़ाबले के लिए अब ज़रूरत सिर्फ़ हिंदुत्व के उससे भी बड़े शो रूम्स खोलने की है।

कर्नाटक में राहुल गांधी ने ‘नफ़रत के बाज़ार’ में ‘मोहब्बत की दुकान’ खोली थी। नफ़रत के बाज़ार का प्रतीक वहाँ तब सत्तारूढ़ भाजपा सरकार को बताया गया था।

राहुल की दुकान वहाँ चल भी निकली। कांग्रेस ने भारी बहुमत से ऐसी जीत हासिल की कि भाजपा ऊपर से नीचे तक हिल गई और ‘आजतक’ संभल नहीं पाई। हिमाचल और पंजाब में हुई पराजयों में भी भाजपा ने कर्नाटक जैसा धक्का नहीं महसूस किया होगा !

बारह जून को प्रियंका गांधी ने मध्य प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी जबलपुर में 101 ब्राह्मणों के साथ प्रदेश की जीवन रेखा माँ नर्मदा का पूजन कर कांग्रेस के चुनावी अभियान की शुरुआत की। जबलपुर शहर में बजरंगबली की तीस-तीस फीट की गदा भी प्रतीक स्वरूप लगाई गई।

कर्नाटक में राहुल गांधी ने भाजपा के बजरंगबली के नारे को मोहब्बत की दुकान की धर्मनिरपेक्षता से चुनौती दी थी। जबलपुर में कांग्रेस भी बजरंगबली के चरणों में हाज़िर हो गई !

प्रियंका के साथ फोटो फ़्रेम में मुख्यमंत्री पद के एकमात्र दावेदार 77-वर्षीय कमलनाथ ही थे। कमलनाथ के हिंदुत्व प्रेम और उसके सार्वजनिक प्रदर्शन से प्रदेश की जनता भली-भाँति परिचित है।

साल 2018 के विधानसभा चुनाव में जीत के बावजूद साल भर बाद ही हुए 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस सिर्फ़ एक स्थान को छोड़ बाक़ी सभी (28) पर हार गई थी। वह एक जगह कमलनाथ के चुनाव क्षेत्र छिन्दवाड़ा में उनके बेटे की जीत की थी।

मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ की कुल 65 लोकसभा सीटों में तब कांग्रेस को सिर्फ़ तीन प्राप्त हुईं थी जबकि तीनों ही राज्यों में हुकूमत कांग्रेस की थी।

जिस समय प्रियंका गांधी जबलपुर के गौरी घाट पर नर्मदा की पूजा-अर्चना कर कांग्रेस के चुनावी हिंदुत्व के शो रूमका फ़ीता काट रहीं थीं, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह वहाँ से सिर्फ़ सवा सौ किलोमीटर दूर स्थित विजयराघवगढ़ के समीप हिनौता की राजा राम पहाड़ी पर भजन गा रहे थे :’ जपो री मेरी माई ,राम भजन सुखदायी।

ये जीवन दो दिन का !’ शिवराज जानते हैं कि जीवन चाहे दो दिन का हो, सत्ता पाँच साल तक खींची जा सकती है और इस चुनाव के बाद उन्हें पाँचवीं बार मुख्यमंत्री बन कर रिकॉर्ड क़ायम करना है।

साल के आख़िर में 230 सीटों वाली विधानसभा के लिए होने वाले चुनावों में प्रदेश की साढ़े आठ करोड़ जनता के लिए यही तय करना बचा है कि किस पार्टी का हिंदुत्व उसे ज़्यादा उजला दिखाई देता है !

कर्नाटक में तो देवेगौड़ा का जनता दल (एस) भी मैदान में था पर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो मुख्य मुक़ाबला सिर्फ़ दोनों दलों के हिंदुत्व के बीच ही होना है।

छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस ने भाजपा की टक्कर में हिंदुत्व का बड़ा मॉल ही खोल दिया है। कांग्रेस मानकर ही चल रही है कि तीनों राज्यों के अल्पसंख्यक तो उसका ही साथ देने वाले हैं। उनके पास कोई तीसरा विकल्प ही नहीं है।

ऐतिहासिक ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और कर्नाटक चुनावों के बाद से जिस नई कांग्रेस के जन्म की प्रतीक्षा की जा रही थी वह लोकसभा चुनावों के बाद तक के लिए टल सकती है ! कांग्रेस ने इशारा कर दिया है कि कर्नाटक यात्रा का पहला पड़ाव था ,अंतिम नहीं।

कांग्रेस प्रतिद्वंद्वी भाजपा के इस भरोसे को नहीं तोड़ना चाहती होगी कि चुनावों को जीतने के लिए देश की सबसे पुरानी पार्टी को अगर रणनीति के तौर पर कट्टर हिंदुत्व का सहारा भी लेना पड़े तो उसमें कुछ अनैतिक नहीं होगा।

जो प्रकट होता दिखाई देता है वह यह कि जिस बदली हुई कांग्रेस की बात राहुल गांधी लंदन, अमेरिका या वायनाड में करते हैं वह जबलपुर ,रायपुर और जयपुर में दिखने वाली कांग्रेस से मेल नहीं खाती !

भाजपा सब जगह एक जैसी दिखती है। भाजपा की चुनावी रणनीति और उसकी विचारधारा अलग-अलग नहीं नज़र आती।

आश्चर्यजनक लग सकता है कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस को न तो बजरंग दल में कोई खोट नज़र आती है और न ही ‘द केरला स्टोरी’ में ही कुछ भी आपत्तिजनक दिखाई पड़ता है।(छत्तीसगढ़ की एक महिला कांग्रेस विधायक ने हाल ही में एक धर्मसभा में हिंदू राष्ट्र की माँग करते हुए कहा कि जो जहां है , जिस गाँव में है वहीं से हिंदू राष्ट्र बनाने का संकल्प ले। हम हिंदू एक रहें तभी हिंदू राष्ट्र बन सकता है।)

भाजपा की ताक़त को लेकर कमलनाथ, भूपेश बघेल और अशोक गहलोत जनता के मुक़ाबले ज़्यादा डरे हुए हैं।

राहुल गांधी स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के अपने भाषण में सत्ता के ‘फ़ोर्स’ और जनता के ‘पॉवर’ के बीच का फ़र्क़ तो समझाते हैं पर जबलपुर में कांग्रेस जनता के धर्मनिरपेक्ष पॉवर के बजाय भाजपा के हिंदुत्व के फ़ोर्स से ज़्यादा प्रभावित हो जाती है।

हिंदू-बहुल कर्नाटक के सफल प्रयोग ने न सिर्फ़ पीएम के कथित जादुई तिलिस्म को ख़ारिज करते हुए संघ-भाजपा के कट्टर हिंदुत्व को भी ध्वस्त कर दिया, राष्ट्रीय विकल्प के रूप में कांग्रेस की उपस्थिति के प्रति एक नये क़िस्म की उम्मीदें भी बँधाई।

इन उम्मीदों की धर्मनिरपेक्ष बुनियादें सिर्फ़ इन कारणों से नहीं हिलने दी जानी चाहिए कि कमलनाथ, बघेल और गहलोत का उद्देश्य किसी भी तरह सिर्फ़ विधानसभा चुनावों को जीतना है।

चुनावों में चूँकि अभी समय है इस नतीजे पर पहुँचने में कोई जल्दबाज़ी नहीं करना चाहिए कि राहुल गांधी भी भाजपा के हिंदुत्व के कार्ड के ज़रिए ही नरेंद्र मोदी को सत्ता से अपदस्थ करना चाहते हैं।

कांग्रेस अगर इस तरह के किसी शार्ट कट का इस्तेमाल करेगी तो सफल नहीं हो पाएगी। मोदी या भाजपा की काट हिन्दुत्व नहीं हो सकती। ऐसा होता तो कांग्रेस न तो हिंदू-बहुल हिमाचल में जीत पाती और न ही कर्नाटक में।

राहुल गांधी को लोकसभा जीतना है और मोदी का लक्ष्य भी वही है। राहुल गांधी याद कर सकते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनावों में पार्टी की पराजय के लिए किन नेताओं को किन कारणों से सार्वजनिक रूप से ज़िम्मेदार ठहराते हुए उन्होंने पार्टी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया था। देश की ज़रूरत इस समय कर्नाटक वाली कांग्रेस है, दिल्ली वाली भाजपा नहीं।

मतदाताओं को अगर असली हिंदुत्व और आरोपित हिंदुत्व के बीच ही चुनाव करने को कहा जाएगा तो फिर उन्हें भाजपा के साथ क्यों नहीं जाना चाहिए ?