क्या कमाल खान को खोने के बाद भी पत्रकारिता में यह चलता रहेगा


आज के दौर में पत्रकारिता से लेकर वाइट कॉलर जॉब और मनोरंजन से लेकर शिक्षा जगत तक सभी जगह कॉर्पोरेट कल्चर हावी है। रिडरशिप, व्यूवरशिप, क्लाइंट, कस्टमर, यूजर बढ़ाने की अंधी दौड़ लगी हुई है। अधिकारी से लेकर मातहत तक हर किसी पर टार्गेट पूरा करने, नये-नये आइडिया लाने का दबाव है।


kamal khan ndtv passes away

पिछले वर्ष 30 अप्रैल को एक मनहूस खबर ने पूरी मीडिया इंडस्ट्री समेत हर संवेदनशील व्यक्ति को स्तब्ध कर दिया था। खबर थी कि आजतक के स्टार एंकर रोहित सरदाना (Rohit Sardana) दुनिया में नहीं रहे। अभी इस दर्दनाक हादसे को नौ महीने भी नहीं बीते थे कि आज (14 जनवरी) फिर से ऐसी ही एक खबर ने सबको गमगीन कर दिया।

14 जनवरी को एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार कमाल खान (Kamal Khan) का हृदय गति रुक जाने से इंतकाल हो गया। कमाल खान की उम्र 61 साल थी और रोहित सरदाना जब इस दुनिया से विदा हुए तो उनकी उम्र महज 42 वर्ष थी। कमाल खान के साथ रोहित सरदाना की याद इसलिए आ गई क्योंकि, दोनों के निधन की वजह हार्ट अटैक थी।

साल 2021 के सितंबर महीने में टीवी के मशहूर अभिनेता 40 वर्षीय सिद्धार्थ शुक्ला (Sidharth Shukla) दिल का दौरा पड़ने से असमय काल के गाल में समा गये थे। दिसंबर 2021 में भारत में स्टार्टअप की दुनिया का उभरता सितारा पंखुड़ी श्रीवास्तव (Pankhuri Shrivastava) का महज 32 वर्ष की उम्र में कार्डियक अरेस्ट के चलते निधन हो गया था। ये ऐसे नाम हैं जो हार्ट अटैक का जिक्र आते ही तुरंत याद आते हैं। यकीनन ऐसे और भी नाम होंगे।

पत्रकारिता, ग्लैमर वर्ल्ड या व्यापार की दुनिया में गला-काट प्रतियोगिता है। यहां खुद को साबित करने और प्रतिस्पर्धा में बनाए रखने के लिए लगातार कठिन मेहनत करनी होती है। खासतौर पर पत्रकारिता की दुनिया में आने वाले युवाओं को यह सीख दी जाती है कि अगर 10 से 5 की ड्यूटी करना चाहते हो तो, कोई और पेशा चुन लो।

दबाव केवल काम के घंटों का नहीं है। टीवी और डिजिटल मीडिया में टीआरपी, पेज व्यू, रैंकिंग का इस कदर मानसिक दबाव बनाया जाता है कि इनके गिरते ही करियर डूबने या नौकरी जाने का भय पैदा हो जाता है।

आज के दौर में पत्रकारिता से लेकर वाइट कॉलर जॉब और मनोरंजन से लेकर शिक्षा जगत तक सभी जगह कॉर्पोरेट कल्चर हावी है। रिडरशिप, व्यूवरशिप, क्लाइंट, कस्टमर, यूजर बढ़ाने की अंधी दौड़ लगी हुई है। अधिकारी से लेकर मातहत तक हर किसी पर टार्गेट पूरा करने, नये-नये आइडिया लाने का दबाव है।

दस्तावेजों में काम के घंटे तय हैं लेकिन, कार्यास्थल पर उसे ही अच्छा कर्मचारी माना जाता है जिसे काम के घंटों की फिक्र न हो। जाहिर है, युवावस्था में शरीर के साथ किसी भी तरह की ज्यादती का असर नहीं दिखता लेकिन, उम्र अपनी गति से आगे बढ़ती है और शरीर पर असर दिखाती है।

वर्क-लाइफ बैलैंस की बात करना और प्रोफशनल लाइफ में इसे लागू करना दो अलग बातें हैं। कहते हैं ‘शो मस्ट गो ऑन’ (show must go on) क्योंकि, किसी के जाने से कुछ रुकता नहीं। कमाल खान, रोहित सरदाना, सिद्धार्थ शुक्ला या पंखुड़ी श्रीवास्तव की असामयिक मौत से क्या हमें कुछ सीखना चाहिए? या इन लोगों की जिंदगी से जुड़ी अच्छी बातों को आज याद करें, रात का खाना खाएं और सो जाएं ताकि, कल से फिर वही टीआरपी, पेजव्यू, रेटिंग और परफॉर्मेंस का खेल खेला जा सके।

रतन टाटा से किसी ने सवाल पूछा कि टाटा कंपनी इतने सालों से व्यापार कर रही है फिर भी, आप मुकेश अंबानी की तरह दुनिया के टॉप अरबपतियों में नहीं आ सके? रतन टाटा ने जवाब दिया कि टाटा ग्रुप का मकसद दुनिया का टॉप बिजनेस ग्रुप बनना नहीं बल्कि, भारत को एक खुशहाल देश बनाना है।

यूपी सहित पांच राज्यों के चुनाव सिर पर हैं। मीडिया संस्थानों, खासतौर पर टीवी चैनलों में इस दौरान काम का दबाव अपने चरम पर होता है। क्या यह कॉर्पोरेट कल्चर और आज की पत्रकारिता कमाल खान जैसा पत्रकार पैदा कर पाएगी, जिसकी आवाज कानों में शहद घोल दे और खबर दिल को छू ले?







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