बेरोज़गारी प्रदेश का सत्य है और सरकार से इसे मानने का आग्रह है इंदौर का भर्ती सत्याग्रह


शामियाने में बैठे हर युवा की एक अलग कहानी है लेकिन बेरोज़गारी इन सभी को जोड़ देती है, बेरोज़गारों का यह अपना एक समाज बन चुका है जो अब अपने अधिकारों के लिए गांधी के रास्ते पर चल रहा है।


आदित्य सिंह आदित्य सिंह
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सत्याग्रह यानी सत्य का आग्रह, इंदौर में भी बहुत से युवा बेरोज़गार इन दिनों सरकार से एक सत्य को मानने का आग्रह कर रहे हैं और इसीलिये ये भर्ती सत्याग्रह कर रहे हैं। बेरोज़गारी के जिस सत्य को वे सरकार से मनवाना चाहते हैं वह अब आम है लेकिन अब तक सरकार उससे मुंह छिपाती रही है, हालांकि ये सत्याग्रही ठाने हुए हैं कि वे अब सरकार इस सत्य को मानने के लिए मजबूर कर देंगे।

इंदौर में भंवर कुआ का इलाका कोचिंग संस्थानों और यहां पढ़ने आए विद्यार्थियों के लिए जाना जाता है। ये विद्यार्थी अलग-अलग दर्जे की सरकारी नौकरियों का सपना लेकर प्रदेशभर से इंदौर आते हैं।  ये विद्यार्थी अमूमन यहां दो-तीन साल रहकर तैयारी करते हैं और नौकरी पा जाते हैं। लेकिन यह स्थिति कुछ समय पहले थी अब स्थितियां बदल चुकी हैं। प्रदेश में भर्तियां काफी समय से रुकी हुई हैं और जो परिक्षाएं हुईं उनके परिणाम नहीं आए हैं। ऐसे में इन विद्यार्थियों का इंतज़ार अब लंबा हो चुका है।

खानपान के लिए मशहूर शहर के इस इलाके में भी अब कई नए ठेले खड़े हैं। ये ठेले उन्हीं विद्यार्थियों के हैं जो कभी यहां नौकरी की तैयारी करने के लिए आए थे, इन्होंने तैयारी भी की, पेपर भी दिया लेकिन इसके बाद रिजल्ट नहीं आया और इंतज़ार में काफी समय निकल गया। अब इन्हीं छात्रों ने यहां चाय, नाश्ते की दुकानें या ठेले लगा लिये हैं ताकि इनका गुज़ारा हो सके। इन पर एक संकट समाज    में सम्मान का भी है जिसके चलते वे ये बात अपने परिवार को और शहर के लोगों को बताना नहीं चाहते।

ऐसे ही एक छात्र ने पीएससी चायवाला नाम से एक ठेले पर चाय बेचनी शुरु कर है। उन्हें ये शुरु किये एक ही महीना हुआ है लेकिन मुस्कुराते हुए कहते हैं कि लोगों की आवक देखकर लगता है कि आगे भी गुज़ारा हो जाएगा लेकिन जब उनसे उनकी दुकान के नाम के बारे में पूछा तो मुस्कुराहट के बीच एक हल्की उदासी आई और मुंह से निकला अब नहीं होता।

भिंड इलाके के रहने वाले इस अभ्यार्थी ने बताया कि दो बार पीएससी की परीक्षा दी लेकिन रिज़ल्ट नहीं आया, परिवार को बताया वे भी परेशान हैं। 28 के होने के बाद अब भी यहां रहने के लिए परिवार से ही खर्चा लेना पड़ता था जिसमें उन्हें शर्म आती थी सो चाय की दुकान खोल ली। इससे नकारात्मकता भी कम होती है।

इनके यहां चाय पीने आने वाले भी इन्हीं की तरह रिजल्ट और भर्ती का इंतज़ार कर रहे बहुत से दूसरे विद्यार्थी हैं जो कोचिंग संस्थानों में कोर्स पूरा होने के बाद भी केवल इसीलिए जा रहे हैं ताकि सरकार कोई नियम बदले तो पिछड़ें नहीं और अभ्यास छूटने के साथ उनका पढ़ा हुआ बेकार न हो जाए।

इन्हीं में से ग्वालियर के रहने वाले एक अन्य अभ्यार्थी पवन कहते हैं कि सरकार के पास हमारे लिए अपने दफ़्तरों में काम नहीं हैं ऐसे में अब सड़क पर ही चाय-नाश्ते के ठेले लगाना बेहतर है। इस तरह के प्रयोगों में चंद सफल कहानियों के बीच नौकरी न पा सके विद्यार्थियों की मायूसी और हताशा की सैकड़ों दास्तानें हैं।

कुछ ही दूर दीनदयाल उद्यान में सत्याग्रह जारी है। 24 सितंबर, गुरुवार को इस सत्याग्रह के तीन दिन हो चुके हैं। यहांं प्रदेश में सरकारी नौकरी की भर्तियों को बहाल करने, राज्य लोक सेवा आयोग और अन्य परिक्षाओं के रुके हुए रिजल्ट जारी करने, परिक्षाओं में होने वाली अनियमितता-भ्रष्टाचार पर रोक लगाने, परीक्षा शुल्क कम करने, परीक्षा घोटालों की जांच कराने जैसी कई मांगें उठाई जा रहीं हैं।

ये विद्यार्थी लगातार डटे हुए हैं और मीडिया में सुर्ख़ियां भी बन रहे हैं। मंच पर लाल कुर्सी लगी है और उस पर रखे एक तख़्ते पर माला चढ़ाई गई है जिस पर लिखा है मध्यप्रदेश की भर्तियां। ये बेरोज़गारों का कम हो रहीं सरकारी नौकरियों के लिए शोक है।

प्रदेश के घोषित तौर पर 30 लाख बेरोज़गारों की संख्या को देखते हुए सरकार को इस मुद्दे की गंभीरता का अंदाज़ा है। ऐसे में इस प्रदर्शन पर कड़ी नज़र रखी जा रही है। प्रदर्शन के पहले ही दिन विद्यार्थियों को शांत करने के लिए स्कूल शिक्षा मंत्री ने 18 हजार नौकरियों का ऐलान किया लेकिन प्रदर्शनकारी कहते हैं बेरोज़गारों की ज़रुरत के आगे ये कुछ भी नहीं।

इन्हें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के वादों पर भी यकीन नहीं। पिछले दिनों मुख्यमंत्री के एक लाख नौकरियों के आश्वासन पर 28 साल के छात्र गोविंद सिंह बताते हैं कि मुख्यमंत्री चुनावी जुमला उछालते रहते हैं और अब उन्हें इन जुमलों पर भरोसा नहीं क्योंकि अब सब्र टूट चुका है।

 

 

गोविंद बेरोज़गारी का अर्थशास्त्र समझाते हैं। वे अलग-अलग उदाहरण देकर बताते हैं कि कैसे एक बेरोज़गार पूरे परिवार और समाज के लिए बोझ बन जाता है। गोविंद कहते हैं कि उनके पिता और भाई खेती करते हैं और उनके खर्च के लिए पैसे देते हैं ताकि जब कभी भर्ती आए तो वे (गोविंद) सरकारी कर्मचारी बन सकें।

इन युवाओं ने बुधवार को कलेक्टर कार्यालय पर भी प्रदर्शन किया। इसके बाद शाम को इनके प्रदर्शन स्थल पर से बिजली का कनेक्शन काट दिया गया।

छतरपुर के स्वप्निल गुप्ता कहते हैं कि सरकार हमें अपनी नौकरी मांगने के लिए विरोध का अधिकार भी नहीं दे रही है।

शाम होते-होते सड़क किनारे लगी दुकानें रोशन हो जाती हैं और विरोध प्रदर्शन में लगे इन युवाओं का पांडाल अंधेरे में डूबने लगता है। मोमबत्ती और टार्च की लाइट की कोशिशों के बीच इनका जोश कुछ ज़्यादा चमकीली रोशनी पैदा करता है।

विरोध की गर्माहट से पैदा होने वाली यह रोशनी वाक़ई सुकून देने वाली है। यह रोशनी नौकरी की उम्मीद से हारते दिख रहे हर उदास चेहरे तक जाकर उसे भी रोशन कर देती है।

सुबह से देर रात तक सैकड़ों विद्यार्थी इस शामियाने में आते हैं बैठते हैं और अपने-अपने हिस्से का विरोध सरकार से जताते हैं। सबके चेहरे अलग नज़र आते हैं लेकिन कहानी एक ही है।

2017 से पीएससी की तैयारी कर रहे शुभम पाटीदार सबसे कम उम्र में अधिकारी बनना चाहते थे सो स्कूल के बाद से ही यहां पढ़ने के लिए आ गए थे। कहते हैं कि अब पांच साल हो चुके हैं और नौकरी नहीं मिली।

शुभम पाटीदार

खर्च चलाने के लिए शुभम अब उन्हीं कोचिंग संस्थानों में जाकर वीडियोग्राफी करते हैं जहां वे पहले खुद पढ़ने जाते थे और इसके बाद के समय में डिलेवरी बॉय का काम करते हैं।

पूजा वास्केल

खरगोन की पूजा वास्केले भी चार साल से यहां रह रही हैं वे कहते हैं कि अब तक तीन बार परीक्षा ही दी है लेकिन रिजल्ट का अब तक कुछ नहीं पता।

पीछे बैठे एक अन्य छात्र रवि बताते हैं कि परिवार से खर्च का पैसा मिलना अब बंद हो चुका है और इसीलिए वे अब एक दुकान में काम करते हैं ताकि जब कभी नौकरी आए तब तक पढ़ाई न छूटे।

शामियाने में बैठे हर युवा की एक अलग कहानी है लेकिन बेरोज़गारी इन सभी को जोड़ देती है, बेरोज़गारों का यह एक समाज बन चुका है जो अब अपने अधिकार के लिए गांधी के रास्ते पर निकल पड़ा है।

बिजली कटने के बाद रात में शामियाने में छाया ये अंधेरा और इन सत्याग्रहियों के चेहरे मप्र के युवाओं की स्थिति और वादों की हकीकत बताने वाली सैकड़ों कहानियां हैं जो शायद ही कभी पूरी कहीं जा सकें लेकिन इन्हें कहना ज़रूरी है और ज़रुरी इसलिए है ताकि इस सूबे की अगली पीढ़ी जिम्मेदार इस व्यवस्था से इस कदर हताश न हो।







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