क्यों चुनावी माहौल के बीच बजट में हुई इस प्रोग्राम की घोषणा?


यूपी सहित पांच राज्यों के चुनावी माहौल के बीच बजट में इस घोषणा से किसे फायदा होगा? इस घोषणा से आम आदमी को क्या मिलेगा? ऐसे कई सवाल हैं जो घोषणा के बाद उठने चाहिए लेकिन, उठे नहीं। फिर भी, यह घोषणा बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि इसका सीधा संबंध गांव और गरीब से जुड़ी एक गंभीर समस्या से है।


sanjeev srivastava संजीव श्रीवास्तव
बड़ी बात Published On :
Budget 2022

चुनावी बजट, महंगाई, बेरोजगारी, क्रिप्टोकरेंसी (Cryptocurrency), टैक्स में छूट जैसी चर्चा के बीच मंगलवार को पेश आम बजट 2022 ( Budget 2022) में की गई एक अहम घोषणा पर कम ही लोगों ने ध्यान दिया। बजट पेश करते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण (Nirmala Sitharaman) ने ‘नेशनल टेली-मेंटल हेल्थ प्रोग्राम’ (National Tele Mental Health Programme) शुरू करने की घोषणा की।

यूपी सहित पांच राज्यों के चुनावी माहौल के बीच बजट में इस घोषणा से किसे फायदा होगा? इस घोषणा से आम आदमी को क्या मिलेगा? महामारी के दौर में अस्पताल बनाने के बजाए सरकार ने इस तरह की घोषणा क्यों की? ऐसे कई सवाल हैं जो घोषणा के बाद उठने चाहिए लेकिन, उठे नहीं। फिर भी, यह घोषणा बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि इसका सीधा संबंध गांव और गरीब से जुड़ी एक गंभीर समस्या से है।

पिछले दो साल में तेजी से बढ़ी यह समस्या – 

केंद्र सरकार की इस घोषणा ने साफ कर दिया कि कोविड-19 महामारी के तीसरे दौर से देश भले ही उबर रहा है लेकिन, इसका असर बहुत गहरा है। कोरोना काल के दौरान भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में मानसिक स्वास्थ्य (Mental health) की समस्या तेजी बढ़ी है और इसे लेकर सरकारें चिंतित हैं। आमतौर पर माना जाता है कि कोरोना का सीधा असर शारीरिक स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। सच्चाई यह है कि कोरोना काल में लाखों लोगों ने अपनी नौकरी, व्यापार और रोजी रोटी गंवाई है।

पिछले दो साल से महामारी का लगातार भय, परिजनों को खोने का दर्द, मिलने-जुलने पर पाबंदी और भावनाओं को शेयर न कर पाने की मजबूरी ने लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर असर छोड़ा है।

महामारी के दौरान बड़े ही नहीं, बच्चों को भी अप्राकृतिक परिस्थितियों में रहना पड़ा है। दो साल में स्कूल न के बराबर खुले हैं। बच्चों की आउटडोर गतिविधियों और समाजीकरण की प्रक्रिया रुक गई है। साथ ही, लंबे सेमय से घर में रहने और महामारी से पैदा अनिश्चितता और भय के माहौल ने भी बाल मन पर गहरा असर डाला है। बच्चे भले ही इन बातों को खुलकर व्यक्त न कर सकें लेकिन, उनके मानसिक स्वास्थ्य पर इसका असर पड़ा है।

कोरोना काल में लोगों ने फोन पर पूछे ये सवाल – 

आंकड़ों के मुताबिक, पिछले दो साल में बच्चों में मानसिक स्वास्थ्य के मामलों में तीन से चार गुना वृद्धि हुई है जबकि, विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले 11000 से ज्यादा स्टूडेंट ने इस दौरान आत्महत्याएं की हैं।

निमहांस (NIMHANS) में मनोचिकित्सा विभाग की प्रमुख डॉ. प्रतिमा मूर्ति का कहना है कि कोरोना काल के दौरान निमहांस डिजिटल अकादमी (NIMHANS DIGITAL ACADEMY) के पास महीने में 10,000 से ज्यादा कॉल आती थीं।

उनका कहना है कि पहली लहर के दौरान ज्यादातर लोग वायरस के बारे में जानकारी पाने के लिए फोन करते थे। दूसरी लहर में हुईं मौतों के बाद दुख, डिप्रेशन, तनाव, वर्क फ्रॉम होम की चुनौती, बच्चों की पढ़ाई और भविष्य को लेकर चिंता से जुड़े सवाल आते थे। जबकि, तीसरी लहर में वैक्सीन को लेकर डर और अगली लहर की आशंका के बारे में सवाल थे।

खास बात यह है कि मानसिक स्वास्थ्य या मनोवैज्ञानिक समस्या (Psychological Problem) को अब तक शहर में रहने वाले अमीर तबके से जोड़ कर देखा जाता था। कोरोना काल ने यह साबित कर दिया कि गांव, कस्बों से लेकर महानगरों में रहने वाले गरीब, मध्यम वर्गीय और गरीब सहित बच्चे, बूढ़े और जवान किसी को भी यह ग्रसित कर सकती है। केंद्रीय बजट में नेशनल टेली-मेंटल हेल्थ प्रोग्राम की घोषणा इसी बात का सबूत है।

क्यों सरकार को करनी पड़ी ऐसी घोषणा – 

शारीरिक तौर पर बीमार होने वाला व्यक्ति काम से छुट्टी लेकर स्वास्थ्य लाभ ले सकता है लेकिन, कोई यह कहकर छुट्टी नहीं मांग सकता है कि उसका काम करने का मन नहीं है। या उसकी मानसिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह काम कर सके।

हालांकि, कोरोना काल के दौरान पूरी दुनिया में मानसिक स्वास्थ्य (Mental health) को लेकर चिंता बढ़ी है और इस पर चर्चा भी हो रही है। इस बात को स्वीकार किया जाने लगा है कि शारीरिक स्वास्थ्य की तरह मानसिक स्वास्थ्य का सीधा असर व्यक्ति की उत्पादकता पर पड़ता है।

यानी, मानसिक परेशानी या साइकोलॉजिकल स्ट्रेस का असर व्यक्ति की परफॉर्मेंस और प्रोडक्टिविटी पर तो पड़ता ही है। अंतत: यह देश की आर्थिक स्थिति को भी प्रभावित करता है।

मानसिक बीमारी के बारे में मिथक – 

इसमें कोई दो राय नहीं कि मानसिक बीमारी के बारे में हमारे समाज में जागरुकता और जानकारी का घोर अभाव है। अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत में औसतन एक लाख की आबादी पर एक से भी कम मनोचिकित्सक हैं।

वजह साफ है कि मानसिक स्वास्थ्य (Mental health) को सीधे पागलपन से जोड़ दिया जाता है। अवसाद, घबराहट, भय, चिंता जैसी अनेक समस्याएं हैं जो असल में मानसिक बीमारी हैं। समय रहते इलाज न होने पर इनमें से कोई भी परेशानी जानलेवा साबित हो सकती है। स्टेट लेवल डिजिज बर्डेन स्टडी (state level disease burden study) के मुताबिक, भारत में हर सात में से एक व्यक्ति किसी न किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त है।

इन सबके बावजूद हम किसी मनोचिकित्सक (Psychiatrist) या मनोवैज्ञानिक (Psychologist) के पास जाने से कतराते हैं क्योंकि, लोग क्या कहेंगे का डर है।

कैसे काम करेगा नेशनल टेली-मेंटल हेल्थ प्रोग्राम – 

केंद्रीय बजट में नेशनल टेली-मेंटल हेल्थ प्रोग्राम की घोषणा में 23 टेली मानसिक स्वास्थ्य केंद्रों के एक राष्ट्रीय नेटवर्क की स्थापना की बात कही गई है। नोडल सेंटर के तौर निमहांस (NIMHANS) इन्हें संचालित करेगा और IIIT बैंगलोर के द्वारा इस कार्यक्रम को तकनीकी सहायता प्रदान की जाएगी।

यह 24×7 काम करने वाली नि:शुल्क सेवा होगी, जहां काउंसलर से सीधे संपर्क किया जा सकेगा। इस अवधारणा के पीछे विचार है कि देश के हर गांव, कस्बे या शहर में तत्काल ऐसे मेंटल हेल्थ सेंटर स्थापित नहीं किये जा सकते हैं। गरीब तबके तक मेंटल हेल्थ की पहुंच को सुनिश्चित करने के लिए ही टेली-मेंटल हेल्थ प्रोग्राम की घोषणा की गई है। कोई भी व्यक्ति इस सेवा का लाभ उठा सकता है और मेंटल हेल्थ से जुड़ी समस्या के बारे में समाधान पा सकता है।

आर्थिक रूप से संपन्न और बड़े शहरों में रहने वाले लोगों को तो इस तरह की सुविधाएं आसानी से मिल जाती हैं लेकिन, गरीबों, बच्चों, महिलाओं, युवाओं, दिव्यांगों तक इस सुविधा को पहुंचाने में नेशनल टेली-मेंटल हेल्थ प्रोग्राम कारगर साबित हो सकता है।

कोरोना ने मेंटल हेल्थ के बारे में इस मिथक को तोड़ा – 

कोरोना महामारी के आने से पहले 2020 तक मेंटल हेल्थ या मानसिक बीमारी को शहरों या अमीरों की बीमारी माना जाता था। महामारी के दौरान नौकरियां जाने, बढ़ते आर्थिक संकट, सामाजिक दूरी, लाखों मौतों और अनिश्चितता के माहौल के चलते गांव और कस्बों तक में मानसिक स्वास्थ्य एक गंभीर मुद्दा बन गया है।

नेशनल हेल्थ मिशन (National Health Mission) के मुताबिक, भारत में छह से सात फिसदी आबादी मेंटल डिसऑर्डर का शिकार है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, हर चौथे परिवार में कोई न कोई एक व्यक्ति मानसिक स्वास्थ्य की समस्या से ग्रस्त है।

बजट पर राजनीतिक चर्चा के बीच नेशनल टेली-मेंटल हेल्थ प्रोग्राम (National Tele Mental Health Programme) पर बहस न होना सामान्य है क्योंकि, यह टीआरपी बढ़ाने वाला मुद्दा नहीं है। हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि महामारी के असर ने मानसिक स्वास्थ्य को शारीरिक स्वास्थ्य की तरह ही, सामान्य विमर्श में शामिल करने के लिए मजबूर किया है।

सरकार जानती है कि आने वाले समय में लोगों के मानसिक स्वास्थ्य (Mental health) का सीधा असर राष्ट्रीय स्वास्थ्य और अर्थव्यवसथा पर भी होना तय है। शायद इसी आशंका के चलते सरकार ने यह पहल की है। सरकार की यह पहल कितनी कारगर साबित होगी इसका पता तो योजना के लागू होने के बाद ही चलेगा।



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