सवा सौ साल पुरानी दरगाह पर लगेगा हिंदू मुसलमान की साझी विरासत का मेला


यह विरासत हिंदू और मुस्लिम संप्रदाय के बीच की है। जिसे महू के शहरियों ने जतन से संवारा।


अरूण सोलंकी अरूण सोलंकी
इन्दौर Updated On :

आज भी यहां मिट्टी के खिलौने बिकते हैं, सत्तर साल पहले से शुरू हो गया बड़ा मेला…

महू (इंदौर)। धर्म के नाम पर रोज़ ही बनाए जा रहे विवादों के बीच महू में एक साझी विरासत का त्यौहार मनाया जा रहा है। यह विरासत हिंदू और मुस्लिम संप्रदाय के बीच की है। जिसे महू के शहरियों ने जतन से संवारा है और इस विरासत की नींव उत्तर प्रदेश से आई एक ईंट पर रखी गई। जिसे इस शहर की कई पीढ़ियों ने सम्मान दिया।

महू तहसील की प्रसिद्ध गाज़ी मियां की दरगाह पर  रविवार को हिंदू और मुस्लिम धर्म प्रेमियों का मेला लगेगा।

सवा सौ साल पुरानी इस दरगाह का इतिहास भी काफी रोचक है। जिसकी परंपरा आज तक शहर का हिंदू परिवार पूरी शिद्दत के साथ निभा रहा है। इस दरगाह के नीचे बनी बावड़ी ने सत्तावन साल पूर्व तहसील में आए भीषण जल संकट के दौरान पानी पिलाया था। इस वजह से भी गाज़ी मियां की दरगाह के लिए महू के लोगों में खास सम्मान है।

गोकुलगंज स्थित गाज़ी मियां बाबा की दरगाह पर रविवार को एक  मेला लगेगा। परंपरा के अनुसार यह मेला जेठ माह के प्रथम रविवार को ही लगता है।  इस  दिन दरगाह पर विशेष  ज़ियारत की जाती है गाज़ी मियां की दरगाह का इतिहास तहसील में सवा सौ साल पुराना है।

साल 1905 में शहर के प्रतिष्ठित  रतन जायसवाल ने अपनी मन्नत पूरी करने के लिए उत्तर प्रदेश के बहराई मे स्थित गाज़ी मियां बाबा की दरगाह से एक ईंट लाकर यहां स्थापित की थी। जिस जगह ईंट रख कर जायसवाल परिवार ने दरगाह बनाई थी वह उनकी स्वयं की ज़मीन थी। इसके पास ही एक बावड़ का भी निर्माण कराया गया। शुरूआती दिनों में इस दरगाह पर कम ही श्रृद्धालु आते थे लेकिन बाद में दरगाह की ख्याति बढ़ती गई और पिछले करीब सत्तर साल से यहां मेला लगने लगा।

जहां महू के अलावा आसपास के ग्रामीण क्षेत्र की बडी संख्या में
श्रृद्धालु आने लगे। कहा जाता है कि सन् 1964 में तहसील में सूखा पड़ा था। उस समय इसी  बावड़ी के पानी ने सभी की प्यास बुझाई थी।

इस दरगाह पर लगने वाले मेले की कई विशेषताएं हैं। जिसमें सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस मेले में तथा यहां माथा टेकने आने वाले श्रृद्धालुओं में 90 प्रतिशत श्रृद्धालु हिंदु सम्प्रदाय के हाेते हैं। इसके अलावा यहा मेले के लिए स्थापित होने वाले निशान सबसे पहले दरगाह की चोैखट पर सलामी देते हैं।

यही एक मात्र मेला है जिसमें मिट्टी के खिलौने बिकने आते हैं और उन्हें खरीदने वाले पूरी रात यह  नजर आते है। कभी इस मेले में मिट्टी के खिलौने बेचने वाले दुकानदारों की संख्या सौ से ज्यादा रहती लेकिन समय के साथ मिट्टी के खिलौेने खरीदने व बेचने वालों की संख्या भी कम होती गई।

मेले में विरह गीतों व कव्वाली का मुकाबला होता था लेकिन अब विरह गाने वाले ही नहीं बचे।

मेला रविवार को शाम से शुरू होगा जो सोमवार की रात तक चलेगा। रतन जायसवाल के बाद  बेनीमाधव जायसवाल ने दरगाह तथा मेले की बागडोर संभाली। उनके निधन के बाद जायसवाल परिवार के साथ अब अग्रवाल परिवार भी इस परंपरा को पूरे सम्मान के साथ निभा रहा है।

बीते दो वर्ष से कोरोना काल के कारण यह मेला नहीं लग सका लेकिन रविवार को  इस मेल में बड़ी संख्या में श्रृद्धालुओं के आने की संभावना है।



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