भगोड़े विधायक नहीं, योगी आदित्यनाथ की सबसे बड़ी मुसीबत हैं ये 5 चीजें!


यूपी के मतदाताओं के सामने मोदी-योगी के डबल इंजन की सरकार, अखिलेश का छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन, प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) का महिला कार्ड, मायावती (Mayawati) का दलित कार्ड, एमआईएम का मुस्लिम कार्ड और ‘आप’ का मुफ्त बिजली का विकल्प मौजूद है।


sanjeev srivastava संजीव श्रीवास्तव
राजनीति Published On :
Yogi Adityanath

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (UP Election 2022) से ठीक पहले यूपी सरकार के तीन मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी सहित 14 विधायकों के बीजेपी (BJP) छोड़ने के बाद चुनावी माहौल वर्तमान सरकार के खिलाफ जाता हुआ दिख रहा है। खुद को राजनीतिक पंडित मानने वाले ऐसा दावा कर रहे हैं।

तो क्या यह मान लेना चाहिए कि 2017 में भारतीय जनता पार्टी को मिली बंपर जीत की वजह स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान या धर्म सिंह सैनी जैसे नेता थे? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) का प्रभाव या अमित शाह (Amit Shah) के चुनावी प्रबंधन का उसमें कोई योगदान नहीं था?

हालांकि, सवाल यह भी उठता है कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और अमित शाह (Amit Shah) को अपनी जीत पर इतना ही भरोसा था तो, इन नेताओं को पार्टी में लेने की जरूरत ही क्यों पड़ी? स्वामी प्रसाद मौर्य (Swami Prasad Maurya) पांच बार विधायक का चुनाव जीत चुके हैं और छह बार पार्टी बदल चुके हैं। यह देख कर तो कोई गैर-राजनीतिक व्यक्ति भी बता देगा कि अगले चुनाव से पहले वह कहां होंगे।

बीजेपी के अन्य मुख्यमंत्रियों से क्यों अलग हैं योगी

चुनाव से ठीक पहले इन नेताओं के पार्टी बदलने से नतीजों पर क्या असर होगा यह तो 10 मार्च को ही पता चलेगा। लेकिन, 2017 के चुनाव परिणाम तो हमारे सामने हैं जो बताते हैं कि आज भले ही योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) को बड़ा नेता माना जा रहा है लेकिन उस वक्त किसी को नहीं पता था कि यूपी का सीएम कौन होगा। जाहिर है उस चुनाव में बीजेपी की प्रचंड जीत के पीछे मोदी लहर सबसे बड़ी वजह थी।

इसमें कोई दो राय नहीं कि 2017 के परिणामों के बाद जब योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) को यूपी का सीएम बनाया गया तो, बीजेपी को वोट देने वाले भी चौंक गए थे। पिछले पांच सालों में योगी ने एक बात साबित कर दी कि वह किसी की दया पर बनाए गए कठपुतली सीएम नहीं हैं।

उत्तराखंड, गुजरात, हरियाणा या मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में बीजेपी के मुख्यमंत्रियों की तुलना में योगी आदित्यनाथ ने अपनी अलग पहचान बनाई है। पिछले पांच साल में यूपी में गुंडों-माफियाओं के खिलाफ सख्त कार्यवाही, कोविड की पहली लहर के दौरान प्रशासन की सतर्कता के अलावा, योगी ने एक सख्त प्रशासक के तौर पर अपनी छवि बनाई है।

बीजेपी ने तैयार किया एक नया कॉम्बिनेशन

इसके अलावा, नरेंद्र मोदी पिछले साढ़े सात साल से बनारस के सांसद और देश के प्रधानमंत्री हैं। इस दौरान वह 30 से ज्यादा बार बनारस का दौरा कर चुके हैं और बनारस में चल रही हर विकास परियोजना पर सीधे पीएमओ की नजर होती है।

साथ ही, उज्ज्वला योजना (Pradhan Mantri Ujjwala Yojana), इज्जत घर (ओडीएफ), प्रधानमंत्री आवास योजना (Pradhan Mantri Ujjwala Yojana), प्रधानमंत्री जन धन योजना (Pradhan Mantri Jan Dhan Yojana), पीएम किसान सम्मान निधि (Pradhan Mantri Jan Dhan Yojana), गरीबों को मुफ्त राशन जैसी योजनाओं को जमीनी स्तर पर लागू करने में इस बात खास ध्यान रखा गया है कि यह जरूरतमंद तक पहुंचे।

प्रधानमंत्री मोदी का यूपी से विशेष लगाव, केंद्र सरकार की कल्याणकारी योजनाओं और योगी आदित्यनाथ की सख्त प्रशासक की छवि के साथ, बीजेपी ने एक नया कॉम्बिनेशन तैयार किया है। यह कॉम्बिनेशन, कई मायनों में अनोखा है।

इन चीजों में मोदी से एक कदम आगे हैं योगी

मोदी खुद को फकीर कहते हैं। उन्होंने भले ही शादी की है लेकिन, परिवार से कोई लेना-देना नहीं है। जबकि, योगी आदित्यनाथ ने युवावस्था में ही घर-बार छोड़ दिया था। नरेंद्र मोदी अपनी धार्मिक आस्था का खुलकर सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं लेकिन, योगी आदित्यनाथ को इसकी भी जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि वह गेरुआ वस्त्र पहनते हैं और गोरखनाथ मंदिर के महंत हैं।

यानी, सार्वजनिक जीवन में त्याग और धार्मिक आस्था के मामले में योगी और मोदी की जोड़ी एक परफेक्ट कॉम्बिनेशन है। यह चुनाव इस बात की भी परीक्षा है कि मोदी की तुलना में योगी की छवि बीजेपी के कट्टर समर्थकों सहित अन्य वोटरों को आकर्षित करने में कितना कारगर साबित होती है।

योगी से अलग है मोदी की राजनीति का तरीका

मोदी के राजनीतिक जीवन में अमित शाह हमेशा परछाई की तरह मौजूद रहे हैं। योगी आदित्यनाथ के पास इस तरह का कोई सपोर्ट सिस्टम नहीं है। नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर अपने विकास कार्याों को राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित करने के लिए योजनाबद्ध ढंग से काम किया था जिसका आगे चलकर उन्हें काफी लाभ हुआ।

मोदी युवाओं को आकर्षित करने में भी माहिर हैं। वह अपने पहनावे और बॉडी लैंग्वेज के प्रति बेहद सजग रहते हैं और लोगों के साथ सेल्फी खिंचवाने तक से परहेज नहीं करते। उन्हें पता है कि यह चीजें युवाओं को पसंद आती हैं। इस मामले में योगी आदित्यनाथ, मोदी से पिछड़ते नजर आते हैं।

विपक्ष ने किसान आंदोलन से नहीं लिया यह सबक

इसके अलावा दूसरी लहर के दौरान यूपी में कोविड मिसमैनेजमेंट और बढ़ती बेरोजगारी ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें योगी का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। हालांकि, इसमें कोई दो राय नहीं कि कोविड की दूसरी लहर के दौरान बंगाल से लेकर महाराष्ट्र और केरल से लेकर दिल्ली तक लगभग सभी राज्य सरकारें बुरी तरह फेल हुईं।

यूपी में बेरोजगारी, महंगाई, पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतें, पुलिस कस्टडी में मौतें और यूपी पुलिस की विवादित कार्यशैली ऐसे मुद्दे रहे हैं जिन पर योगी सरकार को आसानी से घेरा जा सकता था। इन मुद्दों पर कांग्रेस (Congress), बीएसपी (BSP) या समाजवादी पार्टी (SP) में से कोई भी पार्टी सड़क पर आंदोलन करती नजर नहीं आई। जबकि, इस दौरान कृषि कानूनों के खिलाफ किसान संगठनों ने आंदोलन किया और सरकार को झुकने पर मजबूर भी किया। हालांकि, यूपी में विपक्षी नेता इस बात को समझ नहीं पाये।

अखिलेश और मायावती से आगे निकल गईं प्रियंका

सड़क पर आंदोलन करने के मामले में अखिलेश यादव या मायावती की तरह इवेंट पॉलिटिक्स या ट्वीट करने के बजाय, प्रियंका गांधी ज्यादा सक्रीय नजर आईं। यही वजह है कि कई सर्वे यूपी में कांग्रेस के वोट प्रतिश में पांच से दस प्रतिशत तक के उछाल की बात कह रहे हैं।

यूपी में महिलाओं को 40% टिकट देने के वादे और ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ जैसे नारे देकर प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) ने यूपी की राजनीति में कुछ नया करने का साहस भी दिखाया है।

फिलहाल, मीडिया के माध्यम से यह आम धारणा बन रही है कि इस बार यूपी में बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच दो ध्रुवीय मुकाबला होने जा रहा है। इसमें कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, एआईएमआईएम (AIMIM) और आम आदमी पार्टी (AAP) को सिरे से खारिज किया जा रहा है।

यूपी के मतदाताओं के सामने मोदी-योगी के डबल इंजन की सरकार, अखिलेश का छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन, प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) का महिला कार्ड, मायावती (Mayawati) का दलित कार्ड, एमआईएम का मुस्लिम कार्ड और ‘आप’ का मुफ्त बिजली का विकल्प मौजूद है।

मतदाता, केवल चुनाव नजदीक आने पर सक्रिय होने वाले नेताओं से प्रभावित होगा या जाति-धर्म के ध्रुवीकरण पर मुहर लगाएगा या मुद्दा कुछ और होगा? इन सवालों के जवाब तो 10 मार्च को ही मिलेंगे।



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